ऋतेश काफी समय तक रंगमंच से जुड़े रहे। उन्होंने '..और अंत में प्रार्थना' और 'तख्त-ओ-ताब' जैसे सफल नाटकों का निर्देशन और मंचन किया। नीलांबर नामक साहित्यिक संस्था के गठन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। ऋतेश को मैं बिंदास कवि कहता हूं, वह इसलिए कि वे 'मूडी' कवि हैं। लेकिन उनकी कविताओं में एक अद्भुद किस्म का ओज और ऊंचाई है। कविता में जिस 'नीजपन' के खत्म होते जाने की बात आज उठाई जा रही है, वह ऋतेश के यहां अपनी कलात्मकता के साथ उपस्थित है। ऋतेश की कहीं भी छप रही या शामिल हो रही ये पहली कविताएं हैं।
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ऋतेश संपर्कः 09874307700 |
आपकी प्रतिक्रिया इस कवि के लिए बहुत महत्वपूर्ण होगी।
घर जाता हूँ किसी अपराधी की तरह
(1)
अब तक, कब तक........
हिमालय से ऊँचे-ऊँचे शब्द
पार करने की कई असफल कोशिश कर चुका था
घिरा था। खड़ा था। हाँफता था । शून्य में ताकता था
“अरे यार तू”
एक ज़ोर की धबक पड़ी पीठ पर
और फिल्म का पूरा रील घूम गया
मैं सड़क पर था
देखा
सामने एक बहुत पुराना मित्र
“और आजकल क्या हो रहा है”
ऐसा लगा उसके मुँह से एक भयंकर अजगर निकला हो
मुझे निगल गया हो
दम घुटने लगा
अजगर के पेट में बाऊजी का चिड़चिड़ाया चेहरा दिखा
अब भी कुछ बुदबुदा रहे थे
माँ शांत कर रही थी
मेरी ओर देखती थी
उसकी आँखों में
दिख रही थी मेरी लाचारी
“अबे ओ तीसरी दुनिया के प्राणी
क्या सोचने लगा
तू बिल्कुल नहीं बदला”
“पर तुम तो सिर से पाँव तक बदल गए हो”
वह शाहरुखी मुस्कान छोड़ता रहा
“देख कुछ तो एडजस्ट करना ही पड़ता है दोस्त
अच्छा बता
तेरे सभी आदर्श किस काम के
क्या फायदा हुआ
दुनिया कहाँ से कहाँ पहुच गई और तू वहीं सड़ रहा है”
मुझे लगा सचमुच मुझसे बदबू आ रही है
“जैसा समय हो आदमी को वैसा ही होना चाहिए
बोल है कि नहीं ” वह हामी चाहता था
“सभी अपने समय के जैसे ही होते हैं
फर्क ये है कि किसी का समय जेट विमान में बैठा है
और किसी का मर गया है”
तू वही का वही....
“खैर मैं चलता हूँ
वह खीज़ गया था
वैसे तुझे नहीं बुलाया”
मैं चौंका
देखा सामने विवाह घर सजा है
बिजली की सजावट में चमक रहा है
“मनोज संग बीना”
“मनोज ने तुझे....”
“अच्छा किया । अच्छा दोस्त है मनोज
समझदार है और.......”
चेहरे से उसके असमंजस झाँक रहा था
मैंने चुप्पी तोड़ी
“जाओ अब मैं भी घर जाऊँगा”
(2)
कोई नहीं था दूर –दूर तक
वीरान सुनसान
थीं तो केवल कट चुकी फसलों की खूटियाँ
और झाड़ झंखाड़
कि अचानक एक विशाल
गरूड़ मुझ पर झपटा
उस पर दिख गया वही पुराना दोस्त
अपनी शाहरूखी मुस्कान के साथ
मैंने बचने की कोशिश की
कि पैर एक खूँटी से टकराया
दर्द हुआ
मुंह से आह निकली
देखा सड़क पर ईंट से पैर टकरा गया है
आस पास देखा
घर करीब था
मैं घर की तरफ बढ़ा
जैसे कोई अपराधी जेल की तरफ बढ़ता हो।
समय के साथ चलो
समय के साथ चलो, समय के साथ चलो
सब समझाते रहें
मैंने भरपूर कोशिश की
समय की गति समझने की
और हर बार खुद को
पीछे बहुत पीछे हाँफता हुआ पाया
अब जब वर्षों बाद
यह समझ चुका हूँ
कि
समय के साथ चलना
यानि जो है वैसा नहीं दीखना
जो है वैसा नहीं कहना है
तब हाथ में समय नहीं है
पर
आप यह ना समझें कि मैं पछता रहा हूँ
नहीं
वास्तव में मैं इसी जद्दोजहद में हूँ
कि अपने लड़के को
इस मुहावरे का अर्थ समझाऊँ या नहीं
जबकि
अब और भी ऊँची आवाज़ में लोग यह मुहावरा
दुहरा रहे हैं
अपने बच्चों का भविष्य
सँवार रहे हैं
मैं सोचता हूँ
और सोच-सोच डरता हूँ
कहीं मेरा लड़का मुझे धिक्कारेगा तो नहीं
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
बहुत अच्छी कविताएं हैं ऋतेश जी की। बधाई और अनहद का आभार....
ReplyDeleteसमय के साथ चलो ने एक बेहद प्रासंगिक स्वाल उठाया है कि हम अपने बच्चे से ये कहें या न कहें..समय के साथ चलने के मायने हमेशा ही खुद से दूर जाने में ही हैं और ये तय कर पाने में कि ’चलें या न चलें’ अगर देर की तो अक्सर हम पीछे छूट जाते हैं भले ही खुद के पास, खुद के साथ रह जायें..
ReplyDeleteअच्छी कविताएं...... ऋतेशजी को और आप को साझा करने के लिये धन्यवाद.
shukriya Prashant bhai....
ReplyDeleteबेरहम हो चुके समय का एहसास सभी को...इसकी सच्चाई तो अक्सर लोग बयां करते हैं....पर कुछ ही हैं जो समय को जीते हैं...बधाई ऋतेश जी को उनकी रचनायें पहली बार सब के सामने आयी...शुभकामनायें!!!!!!
ReplyDeleteAn-Emoticon से सहमत हूँ, समय के साथ चलो, आज की पीढ़ी और कल की पीढ़ी दोनों के लिए सवाल है, क्या वास्तव में हम समय के साथ चल पाते हैं? क्या इतनी गति से चल पाना भी संभव है? क्या एक मरीचिका के पीछे भागते रहना ही समय के साथ चलना कहलाता है ? बहुत अच्छी रचना है ऋतेश जी.
ReplyDeleteघर जाता हूँ किसी अपराधी की तरह भी कुछ इसी थीम पर है, अतः वही प्रश्न सम्मुख रखती है. विश्लेषणपरक लेखन के लिए बधाई .
ऋतेश जी को शुभकामनाएं और विमलेश जी को उनकी रचनाओं से परिचय करवाने के लिए धन्यवाद.
achchhi kavitayen.
ReplyDeleteबेहतरीन कविताएं....
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