बांग्ला के विलक्षण कवि विनय मजुमदार के यहां प्रेम कोई आध्यात्मिक वस्तु भले ही न हो किन्तु वह पवित्र अवश्य है- प्रकृति की तरह, फूलों, झरनों, पहाड़ों और नदियों की तरह। यह अस्थि-मज्जा से युक्त रक्त, मांस से भरपूर स्पन्दित प्रेम है। कवि की ही तरह उसकी काव्य-भाषा भी विलक्षण है। प्रस्तुत है कवि की "अकाल्पनिक" शीर्षक कविता का हिन्दी अनुवाद। अनुवाद युवा कवि एवं समीक्षक नील कमल ने किया है।
अकाल्पनिक
तुम्हारे भीतर आऊंगा
हे नगरी
कभी-कभी चुपचाप
बसन्त में कभी
कभी बरसात में
जब दबे हुए ईर्श्या-द्वेष
पराजित होंगे इस क़लम के आगे
तब,
जैसा कि तुमने चाहा था,
एक सोने का हार भी लाऊंगा उपहार।
तुम्हारा सर्वांग ज्यों इश्तहार
यौवन के बाज़ार का,
फिर भी तुम्हारे पास आकर
महसूस होता है,
जैसे तुम्हारी अपनी
एक तहज़ीब है,
सिर्फ़ तुम्हारी,
और जो आदमी के भीतर की
चिरन्तन वृत्ति का प्रकाश भी है।
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
क्या बात..!!
ReplyDeleteअच्छी कविता, अच्छे भाव, अच्छी कामना
ReplyDeleteशुक्रिया ...बहुत-बहुत आभार...
ReplyDeleteजब दबे हुए ईर्श्या-द्वेष
ReplyDeleteपराजित होंगे इस क़लम के आगे
तब,
प्राकृतिक विचारों को प्रस्तुत करती उम्दा भावों की कविता. शुभकामनाएं
आभार पूजा..
ReplyDeleteek genuine kavi ko logon ke beech laane ke liye shukriya. inki aur 4 kavitayen ab anudit hain. jald hi aap inhein bhi dekhenge.
ReplyDeleteshukriya neelkamal jee
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर वचन आपकी जितनी तारीफ करू उतनी कम है जी |
ReplyDeleteआप मेरे ब्लॉग पे भी देखिये जीना लिंक में निचे दे रहा हु |
http://vangaydinesh.blogspot.com/