रघुराई ।। संपर्कः 09883728063 |
रघुराई जोगड़ा ने ढेर सारी कविताएं लिखी हैं। स्कूली दिनों से लेकर अबतक लिखने का सिलसिला अनवरत जारी है। बीच में कई कहानियां भी लिखीं। लेकिन कहीं भी रचनाएं न भेजने के कारण उनकी किसी भी रचना को किसी प्रमुख पत्र में स्थान नहीं मिला। लेकिन मेरा विश्वास है कि रघुराई भविष्य के कवि-कथाकार हैं। फिलवक्त उनकी कविताओं की ढेर से एक कविता अनहद के पाठकों के लिए। हम आगे भी उनकी कविताएं यहां देंगे। यह कविता यहां उनसे परिचय करने के निमित्त..। आपकी बेबाक प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा।
पीठ
मेरी एक पीठ
छूट जाती है हमेशा घर में
दीवार से सटी
ठुंका होता उसपर एक कील
कि जिसपर पत्नी टांगती है
अपनी साफ और धुली हुई ब्लाऊज
मेरी दूसरी पीठ
फेंकी हुई रहती धूप में
सड़क के बीचोंबीच
जिसपर से गुजर जाते
रोज ही
कई-कई जोड़े चरमराते जूते
मेरी एक पीठ
झुकी रहती है हमेशा
अपने हित-मीत परिचितों के लिए
कि वे आसानी से
चला सकें अपनी-अपनी बंदूकें
एक पीठ
दफ्तर के जरूरी कागजों से दबी
दुहरी हुई
देखती है बार-बार घड़ी
और दूसरी एक पीठ
हमेशा चिंतित
देश-दुनिया
संस्कृति सभ्यता के बारे में
मैं एक आम हिन्दुस्तानी
परिचय के नाम पर
मेरे पास फिलवक्त
सिर्फ मेरी पीठ है...
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
bhalo laglo pore,aro kovita lagan
ReplyDeleteशानदार!!!!!
ReplyDeleteसच को उजागर करती मन का असली तेवर दिखाती कविता..
विमलेश जी पाठकों का भी ख्याल रखा करिये..आपसे आग्रह है कि सिर्फ एक कविता पोस्ट मत किया करें...यानि १ से ज्यादा..
रघुराई भाई,
ReplyDeleteआपकी कविता में वर्तमान दौर में पगी आम हिन्दुस्तानी की सम्वेदना का सुंदर स्वाद है।
"परिचय के नाम पर
मेरे पास फिलवक्त
सिर्फ मेरी पीठ है..."
ये पंक्तियाँ अति मगर्मिक हैं।
रघुराई को कविता और होली दोनो की बधाइयाँ!
Bahut sunder kwita. Raghurai ji ko badhaiyan.'Aam Hindustani' ka behtareen parichy diya hai aapne...
ReplyDeleteआपने सही कहा विमलेश रघुराई भविष्य के कवि हैं... इन्हे भी गढ़िए जैसे रविन्द्र आरोही को गढ़ा है आपने...बहुत-बहुत शुभकामनाएं... अरूण शितांश, आरा
ReplyDeleteरघुराज जी की सुन्दर कविता ..आपका ब्लॉग और कविता चर्चामंच मे मैं साझा करंगी ... शुक्रवार के दिन... आप चर्चामंच मे भी अपने विचार रख अनुग्रहित करियेया .. ... धन्यवाद
ReplyDeleteमेरी एक पीठ
ReplyDeleteझुकी रहती है हमेशा
अपने हित-मीत परिचितों के लिए
कि वे आसानी से
चला सकें अपनी-अपनी बंदूकें
सुंदर पंक्तियाँ ....गहन अभिव्यक्ति .....
कमाल का बिम्ब लिया आपने....
बहुत संवेदनशील प्रस्तुति..बहुत सुन्दर
ReplyDeleteमेरी दूसरी पीठ
ReplyDeleteफेंकी हुई रहती धूप में
सड़क के बीचोंबीच
जिसपर से गुजर जाते
रोज ही
कई-कई जोड़े चरमराते जूते
ये पंक्तियाँ हमे झकझोरती हैं, हमारे संवेदनाओं को जगाती हैं।