एक दिन रात के बारह बजे हिचकी उठी और रूकने का नाम नहीं ले रही थी। यह कविता लिखते-लिखते मैं हिचकी के बारे में भूल गया था और जब कविता खत्म हुई तो मैं विस्मित था। हिचकी भी रूक चुकी थी।
हिचकी
अमूमन वह उठती है तो कोई याद कर रहा होता है
बचपन में दादी कहती थीं
आज रात के बारह बजे कौन हो सकता है
जो याद करे इतना कि यह रूकने का नाम नहीं लेती
मन के पंख फड़फड़ाते हैं उड़ते सरपट
और थक कर लौट आते वहीं जहां वह उठ रही लागातार
कौन हो सकता है
साथ में बिस्तर पर पत्नी सो रही बेसुध
बच्चा उसकी छाती को पृथ्वी की तरह थामे हुए
साथ रहने वाले याद तो नहीं कर सकते
पिता ने माम लिया निकम्मा-नास्तिक
नहीं चल सका उनके पुरखों के पद चिन्हों पर
मां के सपने नहीं हुए पूरे
नहीं आई उनके पसन्द की कोई घरेलू बहू
उनकी पोथियों से अलग जब सुनाया मैंने अपना निर्णय
जार-जार रोयीं घर की दीवारें
लोग जिसकी ओट में सदियों से रहते आए थे
कि जिन्हें अपना होना कहते थे
उन्हीं के खिलाफ रचा मैंने इतिहास
जो मेरी नजर में मनुष्यता का इतिहास था
और मुझे बनाता था उनसे अधिक मनुष्य
इस निर्मम समय में बचा सका अपने हृदय का सच
वही किया जो दादी की कहानियों का नायक करता था
अंतर यही कि वह जीत जाता था अंततः
मैं हारता और अकेला होता जाता रहा
ऐसे में याद नहीं आता कोई चेहरा
जो शिद्दत से याद कर रहा हो
इतनी बेसब्री से कि रूक ही नहीं रही यह हिचकी
समय की आपा-धापी में मिला कितने-कितने लोगों से
छुटा साथ कितने-कितने लोगों का
लिए कितने शब्द उधार
कितने चेहरों की मुस्कान बंधी कलेवे की पोटली में
उन्हीं की बदौलत चल सका बीहड़ रास्तों
कंटीली पगडंडियों-तीखे पहाड़ों पर
हो सकता है याद कर रहा हो
किसी मोड़ पर बिछड़ गया कोई मुसाफिर
जिसको दिया था गीतों का उपहार
जिसमें एक बूढ़ी औरत की सिसकी शामिल थी
एक बूढ़े की आंखों का पथराया-सा इंतजार शामिल था
यह भी हो सकता है
आम मंजरा गए हों- फल गए हों टिकोले
और खलिहान में उठती चइता की कोई तान याद कर रही हो बेतरह
बारह बजे रात के एकांत में
या सुनो विमलेश त्रिपाठी
कहीं ऐसा तो नहीं कि दुःसमय के खिलाफ
बन रहा हो सुदूर कहीं आदमी के पक्ष में
कोई एक गुप्त संगठन
और वहां एक आदमी की सख्त जरूरत हो
नहीं तो क्या कारण है कि रात के बारह बजे
जब सो रही है पूरी कायनात
चिड़िया-चुरूंग तक
और यह हिचकी है कि रूकने का नाम नहीं लेती
कहीं- न- कहीं किसी को तो जरूरत है मेरी...
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
जरूरतमंद की दुनियां में कमी कहाँ ||
ReplyDeleteभरसक मदद करें||
अपने को याद करने वालों का ख्याल रखें ||
और क्या ??
बहुत-बहुत बधाई ||
bhaut khubsurat...
ReplyDeleteअद्भुत ......................वाकई आपकी ज़रुरत है विमलेश जी ! बहुत सुन्दर कविता !
ReplyDeleteultimate ............... bahut hi b'ful really enjoyed. thanks :)
ReplyDeletebehtreen rachna
ReplyDeleteBhaiya bahut dino baad hi sahi aaj apke blog per pahunch aaya. apki "HICHKI" se rubru hua aur akshar tasveerr banke mansh patal per chha gaye.. bahut hi behtarin kavita lagi aapki...
ReplyDeleteaapka shubhchintak
Shiv Govind Prasad
www.uptti.ac.in
khubsuart 'hichaki' hai jo itni sari baaton ko yaad dilane ke sath-sath apne jarurat ke ehsas bhi kra jati hai ...vimlesh bhaiya bahut sunder kavita
ReplyDeleteआप सभी मित्रों का बहुत-बहुत आभार
ReplyDeleteदूर कहीं कोई पुराना जाना-पहचाना ही हमें याद नहीं कर रहा होता जब हिचकी आती है, जिंदगी की आपा-धापी में छूट गये मोर्चे, खेत-खलिहान, चैता की तान और अपनी किसी पुरानी बिसरा दी गयी कविता में शामिल बुजुर्ग की सिसकी हमें भी याद हो आती है जब हिचकी आती है -- मुझसे शायद यही कह रही है आपकी कविता.
ReplyDeleteअच्छी कविता.... बधाई...
शुक्रिया प्रशांत भाई...
ReplyDeletebadhiya kavita .kafi achha laga .
ReplyDeleteमेरी टिप्पणियाँ कहाँ गई???
ReplyDeleteसुन्दर.. बहुत सुन्दर..
ReplyDeleteशब्द, भाषा, शैली ये सब तो बहुत बाद में सोचेंगे, पर कविता का विषय, आपकी सोच और एक छोटी सी घटना को इतने गहरे से जोड़ देने की आपकी कला ही मुग्ध किये रहती है !
आपने डूब कर लिखा और हम लोगों को भी उसमें गोते लगाने का अवसर दिया.. धन्यवाद :-)