यह सन्नाटा कब
टूटेगा...?
(यह कहानी दीवार में रास्ता संग्रह से साभार)
तेजेन्द्र शर्मा
आज फिर अलार्म सुबह 5.15 पर बज उठा।
वह यंत्रवत् उठा और अपने ब्लैकबैरी फ़ोन पर अलार्म को डिसमिस कर दिया। उसका
सुबह का शेड्यूल हमेशा एकसा ही रहता है। अलार्म बन्द करना; बिस्तर से निकलना; बिस्तर को सीधा करना
और रज़ाई को ठीक से बिछाना; फिर एक अंगड़ाई लेना; अपना पायजामा उठा कर पहनना और पहनते पहनते ही बाथरूम की तरफ़ चल देना।
आंखें भी बेडरूम से बाथरूम तक आते आते ठीक से खुल पातीं हैं।
बाथरूम जाते जाते एक पल के लिये रुक जाता है। अपना लैपटॉप ऑन करता है। कुछ
आवाज़ें आनी शुरू होती हैं। थोड़ी देर में लैपटॉप चलना शुरू कर देता है। विंडोज़-7
अपने शुरू होने की सूचना भी बहुत मधुर सुरों में देता है। इस बीच वह अपने
अंग्रेज़ी टूथ ब्रश पर भारत से मंगवाया आयुर्वेदिक पेस्ट लगाता है और दांत साफ़ कर
लेता है। दांत साफ़ करने के बाद जीभी से अपनी ज़बान ज़रूर साफ़ करता है।
उसे हिमालय टूथपेस्ट का स्वाद बहुत पसन्द है। हिमालय कम्पनी के नाम से
उसकी बचपन की यादें जुड़ी हैं। किशनगंज के
वैद्य जी उसे अपनी दवाओं के साथ साथ लिव-52 नाम की दवा दिया करते थे। इस टूथपेस्ट
से उसकी पहचान भोपाल के एक होटल में हुई। पेस्ट की एक छोटी सी ट्यूब रखी थी उस
होटल के टॉयलट में। उसे अपने पिता की कही बात याद आ गई, “भला सुबह सुबह हम अपने मुंह में फ़्लोराइड या फिर
अन्य कैमिकल क्यों डालें। जब आयुर्वेद हमारे लिये जड़ी बूटियां इस्तेमाल करता है, हम क्यों अंग्रेज़ी दवाइयों और वस्तुओं का प्रयोग करते हैं? ”
वैसे आयुर्वेदिक टूथपेस्ट तो लंदन में भी मिलते हैं। डाबर, नीम, और स्वामी नारायण मंदिर वाले सभी आयुर्वेदिक दवाएं और
रोज़मर्रा के इस्तेमाल के आयुर्वेदिक उत्पाद बनाते हैं। मगर भारत से अपनी पसन्द की
वस्तु दोस्तों से मंगवाने का सुख ही अलग है। उसके बचपन की यादों में बोरोलीन,
सुआलीन, निक्सोडर्म, अफ़ग़ान स्नो, सिंथॉल साबुन, अमूल मक्खन, और रूह अफ़ज़ाह
शर्बत आज भी घर बसाए बैठे हैं।
एक उहापोह भी होती है कि पहले नहा ले या फिर चाय बना ले। फिर वापिस लिविंग रूम में आता है और कम्पयूटर
पर अपना जी-मेल अकाउण्ट खोलता है। एक सरसरी निगाह से देखता है कि कहां कहां से
ई-मेल आए हैं। अगर कोई महत्वपूर्ण ई-मेल दिखाई देता है तो ठीक, वर्ना वापिस टॉयलट की तरफ़ चल देता है। वैसे कभी कभी लैपटॉप उठा कर टॉयलट
में भी ले जाता है। और टॉयलट सीट पर अपने आपको समझाता है कि आज बाबा रामदेव की बात
मान ही लेगा। कपाल भाती और अनुलोम विलोम कर ही लेगा। कबसे अपने आपको तैयार करता आ
रहा है कि उसे यह क्रिया निरंतर रूप से करनी चाहिये।
होता वही है जो रोज़ाना होता है। टायलट से निवृत्त होते होते और स्नान
पूरा करते करते समय अधिक लग जाता है। ऐसे में सबसे पहले बलि का बकरा बनते हैं कपाल
भाती और अनुलोम विलोम। लगता है कि जैसे दोनों प्राणायामों की रिहर्सल सी की हो
उसने। न तो गर्दन और कंधों की एक्सरसाइज़ कर पाता है और न ही प्राणायाम। बस
सैण्डविच बनाता है, चाय बनाता है, एक डाइजेस्टिव बिस्कुट निकालता है और चाय पीने
बैठ जाता है। उसके घर में चाय की पत्ती की जगह टी-बैग ही आते हैं।
उसने एक नया तरीक़ा निकाल लिया है कि टी-बैग की चाय में बम्बई की चाय की
पत्ती वाला ज़ायका आने लगे। वह कप में दो
टी-बैग डाल कर उस में दूध डालता है और माइक्रोवेव अवन में चालीस सेकण्ड तक उबालता
है। दूसरी तरफ़ इलेक्ट्रिक केतली में पानी उबलने के लिये रख देता है। चालीस सेकण्ड
बाद कप बाहर निकाल कर दूध में टी-बैग हिलाता है और उसमें एक गोली स्पलैण्डा
(रासायनिक चीनी) की डालता है। उस पर केतली में से उबलता पानी डालता है। एक मिनट के
बाद विशुद्ध भारतीय चाय तैयार हो जाती है।
वह परेशान है कि आजकल घर से दफ़्तर पहुंचने में एक तरफ़ लगभग दो घंटे लग
जाते हैं। यानि कि एक सप्ताह में बीस घंटे वह रेलगाड़ी में ही बिता देता है। जबकि
पुराने दफ़्तर में जाने के लिये करीब पैंतीस से चालीस मिनट ही लगते थे। यदि वह लिखना
चाहता तो इन चालीस घंटों में से कम से कम पांच घन्टे तो साहित्य सृजन में लगा सकता
था। अब उसे अपने मित्र दिवाकर का लेखकीय सन्नाटा समझ आने लगा था। न लिखने के कारण
भी महसूस होने लगे थे। वह शनिवार को अवश्य ही सैंगी से बात करेगा।
सैंगी उसकी ब्याहता पत्नी नहीं है। बस दोनों साथ साथ रहते हैं। दोनों जीवन
में उस समय मिले जब उनके अपने अपने जीवन साथी राह में ही छोड़ अलग राह पकड़ कर चल
दिये। दोनों की राय विपरीत सेक्स के लिये ख़ासी नकारात्मक हो गई थी। मगर फिर भी
दोनो को एक दूसरे में ही अपना अपना पूरक दिखाई दिया। हिन्दी का बिगुल बजाने वाला
वह अचानक ब्रिटेन की वेल्श लड़की के साथ एक ही छत के नीचे रहने लगा।
वैसे उसका नाम एलिज़बेथ है। सब प्यार से उसे लिज़ कहते हैं। अब क्योंकि
दोनो ने विवाह नहीं किया और पार्टनर बन कर एक ही छत के नीचे रहते हैं, इसलिये वह
उसे संगिनी कहता है और फिर संगिनी प्यार से सैंगी बन गई। घर सैंगी का है मगर घर का
ख़र्चा सारा वह स्वयं ही चलाता है। सैंगी बहुत कहती है कि मिलजुल कर हो जाएगा। मगर नहीं, वह नहीं माना तो नहीं
ही माना।
सैंगी के साथ कभी कभी छोटी छोटी बातों पर बहस भी हो जाती है। शायद इसीलिये
सैंगी ने वापिस अपना कॉलेगट टूथपेस्ट इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। घर में दो
लोग हैं और दो तरह के टूथपेस्ट !
वह हमेशा अपने पेस्ट को नीचे से दबाता है और नीचे से बिल्कुल फ़्लैट करते हुए ऊपर
की ओर बढ़ता है। जबकि सैंगी को कोई फ़र्क महसूस नहीं होता कि पेस्ट की ट्यूब कहां
से दबाई जा रही है। वह समझाती भी है कि इससे क्या फ़र्क पड़ता है कि ट्यूब कहां से
दबा कर पेस्ट निकाली जा रही है। भला इसमें कल्चर और परवरिश और दूसरी बड़ी बड़ी
बातें कहां से आ गईं। सैंगी हमेशा बहस से बचना पसन्द करती है। अब तो वह स्वयं भी
महसूस करने लगा है कि सैंगी से भला क्या बहस।
दरअसल सैंगी शाम को काम करती है। जब वह काम से लौटता है तो सैंगी जा चुकी
होती है। जब तक वह वापिस लौटती है वह गहरी नींद में होता है। इसलिये दोनों को बात
करने का समय भी शनिवार और रविवार को ही मिलता है अन्यथा बस एक दूसरे की ज़रूरत
पूरी करने के अतिरिक्त कोई और संपर्क नहीं। हां जबसे वह इस नये दफ़्तर जाने लगा है
उसके जीवन में बहुत से परिवर्तन आने लगे हैं।
अब उसे सुबह सात बज कर तीस मिनट की गाड़ी लेनी पड़ती है। इसी से सारा जीवन
बदल सा गया है। उसका दफ़्तर न्यू क्रॉस गेट में है। रहता है हैच-एण्ड में। घर से
स्टेशन करीब पंद्रह मिनट की पैदल दूरी पर है। इसलिये सात बज कर दस मिनट तक चल देता
है। हैच-एण्ड से ओवरग्राउण्ड की यानि कि
अपनी ही कम्पनी की रेलगाड़ी लेता है। तीस मिनट में यानि कि आठ बजे क्वीन्स पार्क
स्टेशन पहुंचता है। वहां आठ पांच के करीब बेकर-लू अंडरग्राउण्ड लाइन से बेकर
स्ट्रीट स्टेशन पहुंचता है। एक बार फिर वहां से जुबली लाइन की गाड़ी में बैठता है
और लंदन ब्रिज होते हुए कनाडा वाटर स्टेशन पर उतरता है। वहां से अपनी ही कम्पनी की
ईस्ट लंदन लाइन की गाड़ी में सवार हो कर पहुंचता है न्यू क्रॉस गेट। फिर वहां
क़रीब पंद्रह मिनट पैदल। यानि कि घर से दफ़तर पहुंचने में उसे पूरे दो घंटे लग
जाते हैं। और फिर शाम को यही प्रक्रिया उल्टी दोहराता है।
लिखने और पढ़ने का समय अब उसे नहीं मिलता है। यह ठीक है कि उसके लेखक
दिमाग़ को बहुत से नये किरदार दिखाई देते हैं। उनके क्रियाकलाप देखता है। देखता है
कि कैसे यहां का गोरा आदमी खाली सीट पर लपक कर बैठने का प्रयास नहीं करता। प्रवासी
चाहे किसी भी देश का क्यों न हो, उसकी आंखों में सीट का लालच साफ़ दिखाई देता है।
वह देखता है कि यहां के गोरे आदमी और औरत बहुत तेज़ चलते हैं। शायद गांधी जी ने भी
अपनी चाल इसी देश में रह कर तेज़ की होगी।
वह स्वयं न तो तेज़ चलता है और न ही धीमा। बस मध्यम मार्ग मानने वाला है।
बुद्ध की बहुत सी सीखों को अपने जीवन में अपना चुका है। सैंगी को पता ही नहीं कि
वह कभी ऊंचे सुर में बात भी कर सकता है। न ज़ोर से हंसता है न ऊंचा बोलता है।
सैंगी की वैसे तो अधिकतर बातें मान लेता है, किन्तु उसकी एक बात का ख़ास ख़्याल
रखता है कि अपना काले रंग का बैग, जिसे सैंगी बैक-पैक कहती है, वह अपनी पीठ
पर दोनों कन्धों पर बराबर लटकाता है। सैंगी को लगता है कि ऐसा न करने से इन्सान का
कंधा एक ओर को झुक जाता है।
वैसे तो वह कविता भी लिख लेता है, मगर उसे संतुष्टि का अहसास कहानी लिख कर
ही मिलता है। कवियों का मज़ाक उड़ाते हुए वह हमेशा कहता है, “कविता लिखने के लिये प्रतिभा की आवश्यकता होती
है। जबकि कहानी केवल प्रतिभा से नहीं लिखी जा सकती। उसके लिये प्रतिभा के साथ साथ
मेहनत, प्रतिबद्धता एवं एकाग्रता की भी ज़रूरत होती है।”
जब वह लंदन यूस्टन
में काम करता था तो उसे काम पर पहुंचने में कुल मिला कर पैंतीस मिनट ही लगते थे।
शाम को घर में अकेला होता था। कम्प्यूटर पर उंगलियां थिरकने लगतीं। मगर आजकल
उसका पूरा शरीर इतना थका रहता है कि उंगलियां की-बोर्ड पर थिरकना जैसे भूल
गई हैं। वह घर वापिस आता है निढाल सा
बिस्तर पर गिर जाता है। उसके भीतर का लेखक जैसे लिखना भूल गया है।
साल भर से सन्नाटा
उसके लेखन पर छाया हुआ है। उसके भीतर की तड़प उसे कचोटती रहती है कि आख़िरकार लिख
क्यों नहीं पा रहा। उसके दिल में अब भी विषय जन्म लेते हैं। वह आज भी आम आदमी के
दर्द को भीतर तक महसूस करता है। मगर फिर उन विचारों को पन्नों पर व्यक्त क्यों
नहीं कर पाता? उसके दिमाग़ में
कहानियां जन्म लेती हैं, मगर शब्द काग़ज़ पर उतरने से इन्कार कर देते हैं। शब्दों
ने जैसे विद्रोह कर दिया है। यह हुआ कैसे? शब्द अचानक उसका साथ छोड़ कर किसके साथ चले गये?
वह दफ़्तर में भी काम
में मन नहीं लगा पाता। वहां कहानी के बारे में सोचता है और घर आकर दफ़्तर के काम
के बारे में। एक लड़कपन सा शामिल हो गया है उसके व्यक्तित्व में। एक शरारती बच्चे
की तरह जो खेलते समय स्कूल के होमवर्क के बारे में सोचता है और स्कूल में हर वक़्त
खेल और शरारत उसके दिमाग़ में छाए रहते हैं। वह पिछले वर्ष भर के जीवन को एक दिन
में जीकर ख़त्म कर देना चाहता है। उसका बस चले तो इस पूरे वर्ष को अपने जीवन की
स्लेट से मिटा दे। मगर जीवन में ऐसा कैसे हो सकता है।
उसने स्वयं ही अपनी
एक कहानी में लिखा भी था, “हमारा
जीवन पहले से रिकॉर्ड किया गया एक वीडियो है यानि कि प्री-रिकॉर्डिड वीडियो कैसेट
और वी.सी.आर. में केवल प्ले का बटन है यानि कि इस में हम केवल वीडियो कैसेट चला कर
देख सकते हैं। वहां न तो फ़ास्ट फ़ॉर्वर्ड का बटन है और न ही रिवाइन्ड का। यानि कि
आप न तो वीडियो कैसेट को आगे वढ़ा सकते हैं और न ही पीछे ले जा सकते हैं। जो
शूटिंग आप करके आये हैं, आप वही देख सकते हैं। जो स्क्रिप्ट लिखा गया और जिसकी
शूटिंग आपने पहले से की है ;
जिन चरित्रों के साथ जब जब शूटिंग की है, आपके जीवन में वे लोग, वे हादसे, वे पल
उसी हिसाब से आते जाएंगे।
”
वह सोच रहा है कि इस
सन्नाटे की शूटिंग क्यों की गई ?
आख़िर वह कब तक लिखने के लिये संघर्ष करेगा। वह दिवाकर की तरह अनुवाद भी तो नहीं
करता। उसका एक वर्ष का सन्नाटा दिवाकर के कई वर्षों के बराबर
है। दिवाकर कमसे कम अनुवाद तो निरंतर करता रहा है। फिर भी सोचता है कि वह
सृजनात्मक लेखन क्यों नहीं कर रहा। साल भर से तो मुक्ता भी नहीं लिख पाई है। वह
शायद सोच कर ख़ुश हो रहा है कि चलो उस जैसे और भी कई हैं।
पहले वह ऐसा कदापि
नहीं था। दूसरे के कष्ट और कमज़ोरी से कभी भी उसके दिल को तसल्ली नहीं मिलती। वह
हमेशा दूसरे के कष्टों को अपना कष्ट समझता। शायद इन दोनों से प्रतिस्पर्धा की
भावना रही होगी। इसीलिये उनके न लिख पाने से उसके अहम् को संतुष्टि मिल रही है। वह
परेशान इसलिये भी है क्योंकि अब भारत में उसे मुख्यधारा का लेखक माना जाने लगा है।
उसकी कहानियों की चर्चा शुरू हो गई है। वहां की पत्रिकाओं, समाचार पत्रों एवं
इंटरनेट पर हर जगह उसके साहित्य पर बातचीत हो रही है। उसे लगने लगा है कि अगर वह
एक वर्ष तक नहीं लिखेगा तो साहित्य जगत का कितना नुक़सान हो जाएगा।
वह अपने लेखन को बहुत
गंभीरता से लेने लगा है और नौकरी उसे खलने लगी है। कहने को तो रेल्वे में मैनेजर
है। लेकिन यह भला क्या काम हुआ। अगर उसकी पगार ठीक ठाक न होती तो कब का नौकरी छोड़
चुका होता। वह सोचता है कि हिन्दी का लेखक
केवल लिख कर क्यों नहीं खा सकता ?
क्यों उसे घर चलाने के लिये दूसरा काम करना पड़ता है। मगर दूसरा काम तो वह भारत
में भी करता था। यहां लंदन में इस नौकरी से पहले भी करता था। यह अचानक नौकरी से
क्यों परेशान हो रहा है
?
सोचता है अगर भारत वाली नौकरी में होता तो इस वर्ष अठावन का हो जाता और नौकरी से
रिटायर हो जाता।
रिटायर होने की बात
उसने दो दिन पहले अपनी संगिनी से भी की थी। सैंगी ने पूरे ध्यान से उसकी बात सुनी,
“तुम सच में इतनी घुटन
से जी रहे हो
?
फिर तुमने मुझे कुछ बताया क्यों नहीं ?
तुम ख़ुद ही सोचो कि अगर तुम भारत में होते तो इस साल रिटायर हो ही जाते। तो तुम
यहां भी रिटायरमेंट ले लो। मैं नौकरी कर ही रही हूं, तुम भी कोई पार्ट-टाइम नौकरी
कर लो। हम दोनों को एक दूसरे के लिये वक़्त भी मिल जाएगा और तुम लिख भी सकोगे। ”
सैंगी हर बात का
विश्लेषण इतनी आसानी से कैसे कर लेती है ?
मैं क्यों सैंगी की तरह समझदार नहीं हो सकता ? क्यों मैं बस ईगो का मारा हूं ? वैसे इस नौकरी का एक फ़ायदा भी है। रिटायरमेण्ट की
उम्र 65 साल है। यहां तो कोई किसी को सरनेम से नहीं बुलाता। मिस्टर वगैरह तो लगाने
का सवाल ही नहीं होता। वह तो अपने मैनेजिंग डाइरेक्टर तक को पहले नाम से बुलाता है
– स्टीव कहता है। शायद इसीलिये मनुष्य यहां जल्दी बूढ़ा नहीं होता। वह एक सेवा-
निवृत्त या रिटायर्ड इन्सान नहीं कहलाना चाहता।
मगर उसके लेखन का
क्या होगा ? क्या सैंगी की बात
मान लेनी चाहिये
?
पिछले कुछ दिनों से वह इस बात को लेकर परेशान है। हर रात तय करता है कि अगले ही
दिन यह नौकरी छोड़ देगा। कल रात भी उसने यही तय किया था कि अब उसे नहीं करनी यह
नौकरी, नहीं व्यर्थ करने अपने चार घंटे रोज़ाना – हैचएण्ड से न्यूक्रॉस गेट। कल
रात उसने अपना स्वैच्छिक अवकाश लेने का पत्र भी बना लिया था।
मगर आज सुबह फिर 5.15
पर उसका अलार्म बजा और वही दिनचर्या एक बार फिर शुरू हो गई। वह सात तीस की गाड़ी
लेने के लिये एक बार फिर स्टेशन के प्लैटफ़ॉर्म पर खड़ा है।
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तेजेन्द्र शर्मा
जन्म - 21 अक्टूबर
1952 (जगरांव) पंजाब।
शिक्षा: दिल्ली विश्विद्यालय
से एम.ए. अंग्रेज़ी, कम्पयूटर कार्य
में डिप्लोमा ।
प्रकाशित कृतियां : काला सागर (1990),
ढिबरी टाईट (1994),
देह की कीमत (1999), यह क्या हो
गया ! (2003), बेघर
आंखें (2007), सीधी रेखा की परतें (2009 -
तेजेन्द्र शर्मा की समग्र कहानियां भाग-1), क़ब्र का मुनाफ़ा (2010), दीवार में
रास्ता (2012), सपने मरते
नहीं (प्रकाशनाधीन) सभी कहानी संग्रह । प्रतिनिधि कहानियां
- किताबघर (2014), प्रिय कथाएं (ज्योतिपर्व) (2014)।
ये घर तुम्हारा है... (2007 -
कविता एवं ग़ज़ल संग्रह)।
*कहानी अभिशप्त चौधरी चरण सिंह
विश्वविद्यालय, मेरठ के एम.ए. हिन्दी के पाठ्यक्रम में शामिल। और कहानी *पासपोर्ट का रंग गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, नोयडा के
एम.ए. हिन्दी के पाठ्यक्रम में शामिल।
पुरस्कार/सम्मान: 1) केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा का डॉ.
मोटुरी सत्यनारायण सम्मान – 2011. 2) यू.पी. हिन्दी संस्थान का प्रवासी भारतीय
साहित्य भूषण सम्मान 2013. 3) हरियाणा राज्य साहित्य अकादमी सम्मान – 2012 4) ढिबरी टाइट के लिये महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी
पुरस्कार - 1995 प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के हाथों
।
5) भारतीय उच्चायोग, लन्दन द्वारा डॉ. हरिवंशराय
बच्चन सम्मान (2008)
संप्रतिः ब्रिटिश रेल (लंदन ओवरग्राउण्ड) में
कार्यरत।
संपर्क : 33-A, Spencer Road, Harrow & Wealdstone,
Middlesex HA3 7AN (U. K.).
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
बहुत ही प्यारी कहानी है. लेखक के द्वंद्व को ख़ूबसूरती से रेखांकित किया है. साहित्य के कुछ सवाल भी अपने उठाए हैं बीच में , खास कर कविता और कहानी की सृजन प्रक्रिया पर. आप कहानी कला के माहिर है ही. सचमुच अनेक बार ऐसा ही हुआ है कि परेशान होते रहा और कोई रचना ही नहीं सूझी . और अचानक-से निकल भी पड़ती है
ReplyDeleteएक लेखक की कशमकस ... जिंदगी के बड़े कैनवास पर एक लघु चित्र !!! अच्छा लगा इस कहानी को पढ़कर। लगा लेखक स्वयं को अभिव्यक्ति दे रहा है।
ReplyDeleteक्या बात है! न लिख पाने के बहुत-से कारण, दैनिक रस्साकसी को झेलते हुए जीने की विवशता बड़ी शिद्दत से इस कहानी में समाई है। व्यक्ति जीविकोपार्जन के शिकंजे से मुक्त रहकर सिर्फ लिखना चाहता है, लेकिन मुक्ति पा नहीं सकता। सहयोग का आश्वासन उसके अपने स्वाभिमान से ऊँचा हो नहीं सकता; और न ही वह कोई गारंटी है। बेहतरीन कहानी।
ReplyDeleteEk Badhiya kahani
ReplyDeleteअच्छी कहानी, लेकिन विवरणात्मक। पठनीयता लुभाती है।
ReplyDeletebahut badhiya...
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