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मिथिलेश कुमार राय |
मिथिलेश माटी के कवि हैं। उनकी कविताओं में उनका अंचल, घर-परिवार के साथ ही
वह बड़ा संसार भी बसता है, जो तेजी से बदल रहा है - एक संजीदा कवि की तरह लोक से
जुड़कर मिथिलेश उस संसार की गतिशीलता को भी अपनी कविता में आवाज देते हैं। इस कवि
की एक और बड़ी विशेषता यह है कि वह दूर की कौड़ी पकड़ने के फेर में नहीं पड़ता। इसके
यहाँ सहज-सरल शब्दावली में अच्छी और रेखांकनीय कविताएँ संभव हुई हैं। यहाँ
प्रस्तुत कविताओं के रूप में हमें थोड़ा नयापन देखने को मिल सकता है – लेकिन कथ्य
मिथिलेश का ही है, जिससे हम पहले भी परिचित हो चुके हैं। अवश्य ही नये कथ्य को नए
तरीके से कहने में कवि यहाँ सफल हुआ है। यहाँ घरनी, घर, विरहा से होते हुए कवि
फूलों तक की यात्रा करता है।
हम आशा करते हैं कि प्रस्तुत कविताओं पर आपकी बेवाक
राय हमें मिलेगी।
हम काहे को परेशान होंगे जी
आप ठीके समझते हैं. कि हम जिंदा हैं तो जरूरे मजे में होंगे. मजे में न होते तो जिंदा कैसे होते जी! जिंदगी है तो मजा तो होबे करेगा.
घर में आटा नहीं रहेगा तो खिचड़ी बना के सुड़प लेंगे. दाल नहीं होगी तो खेत से साग खोंट के ले आएंगे. कुछ रहेगा और वह चला जाएगा तब न परेशान होंगे जी!
कुछ था ही नहीं. हम खालिये हाथ उतरे थे. कमाए, आटा-दाल खरीदे. खाए. गाए. सो गए. नींद में कभी यह सपना भी नहीं आया कि सिर पर सोने का ताज है और सवेरे जगा तो वह नहीं था. लुटा-पिटा महसूस काहे करेंगे जी!
ऊ क्या कहते हैं कि परेशानी तो मन का भरम है. भरम. हमको कौन चीज का भरम. बस अपना करम है. वही करते हैं. लड़ते हैं. हँसते हैं. रोते हैं. बोलते हैं. चुप होते हैं.
बथुआ के साग में भी बड़ा स्वाद है जी. नमक अचार रोटी खाकर जब पानी पीते हैं तो एक लंबी सी डकार आती है. तब सच कहते हैं सा'ब कि तृप्त हो जाते हैं. टकही पत्ता वाली बिंदी देखकर पत्नी फूली नहीं समाती. बच्चे अठन्नी नेमनचूस देखकर किलक-किलक उठते हैं. और क्या चाहिए महाराज!
घर एक गाड़ी होता है
गाड़ी का मतलब चलना होता है. कहते हैं कि घर भी चलता रहता है. घर अपने ही स्थान पर हमेशा चलता रहता है. घर के पास भी चलने के लिए पहिए होते हैं.
घर चलता है तो कैसे चलता है. कहते हैं कि घर को चलाना पड़ता है. कुछ घर तो दौड़ते भी हैं. जो घर दौड़ते हैं वे घर बड़े और बड़े आलिशान होते हैं. उन दौड़ते घरों के आसपास चलते-चलते हांफने लगने वाले घर नहीं रहते.
ठेलकर चलानेवाले और चलते-चलते हांफने लगने वाले घर दूसरे छोर पर रहा करते हैं. इस तरह के घरों के पास इतनी रोशनी नहीं होती कि दूर से कोई इनकी मंथर गति को देखकर कुछ नोट कर सके. इस तरह के घरों को ठेलकर कुछ दूर तक ले जाया जाता है, और जब हंफनी शुरू हो जाती है तब वहीं रोक दिया जाता है. जहाँ रोक दिया जाता है, वहाँ से देखने पर पता चलता है कि दौड़नेवाले घर अब तक चाँद तक पहुंच चुके होते हैं और तारे की तरह टिमटिमा रहे होते हैं. चाँद की तरह चमकना और तारों की तरह टिमटिमाते रहना रूके-खड़े घरों का सपना होता है. सपना तो खैर सपना होता है. यह सपना ही होता है.
लेकिन इससे क्या. घर तो घर होता है.
मौसम विरहा गाने का
ऐसे तो यह मौसम गेंहूं का मौसम है. सरसों के पीले-पीले फूलों का मौसम है. चूंकि अभी आम में मंजर आ रहे हैं. तो यह मौसम फाग गाने का मौसम है.
लेकिन असल में यह मौसम लगन का मौसम है. लड़कों के भाव आसमान छूने का मौसम है. यह मौसम लड़कियों के पसंद आ जाने का मौसम है. लड़कियों के पसंद नहीं आने का मौसम है. लड़कियाँ काली हैं. उनकी आँखें छोटी-छोटी हैं. वे बहुत दुबली हैं. उनका कद बहुत छोटा है. लड़कियाँ दरअसल किस तरह की लड़कियाँ हैं, यह उन्हें भान कराने का मौसम है. पसंद आ जाने पर खुश हो जाने, पसंद न आने पर यह लड़कियों के उदास हो जाने का मौसम है.
यह मौसम पिता के तनाव-ग्रस्त हो जाने का मौसम है. माँ के चेहरे का चिंता में डूब जाने का मौसम है. यह मौसम खेत के मोलभाव करने का मौसम है. यह मौसम कर्ज लेने का मौसम है. यह लड़का खरीदने का मौसम है. यह मौसम तो विरहा गाने का मौसम है.
उदास दिनों के किस्से
उदास दिनों के अपने किस्से हैं अपना चेहरा है उसके पास जो और किसी दिन के चेहरे से बिलकुल मेल नहीं खाते उदास दिन के बहुत सारे गीत हैं जिनका अपना धुन है जो अलग तरह के गीतों की श्रृंखला में दर्ज रहते हैं हमेशा
उदास दिनों में पुकार दूर तक नहीं जाती जाती भी है तो वे अनसुनी कर आगे बढ़ जाते हैं बाद में कभी मिलने पर यह कहा जाता है कि उसने तो अावाज सुनी ही न थी सुनता तो जरूर रूकता बातें करता
उदास दिन आता है तो दूसरी ओर की फोन की घंटी बजते-बजते थक कर चुप हो जाती है हरा बटन किसी अंगुली की राह देखता रह जाता है उसे कोई नहीं टिपता पूछने पर कहता है कि फोन कहीं छूट गया था वह कहीं और कोई काम कर रहा था
उदास दिन कह कर नहीं आता पर जब भी आता है उदास दिन वह दिन भर किसी की प्रतीक्षा करता रह जाता है जो शाम ढले तक नहीं आ पाता मिलने पर जब उसे इस बात के लिए टोका जाता है तो बड़ी आसानी से कह देता है कि वह कहीं और निकल गया था
उदास दिन एक झोली निकालता है झोली से ऐसी कई बातें निकालता है ऐसी कई यादें निकालता है जो तब बस एक बात थी लेकिन अब उसका रंग काला सा हो गया होता है जिसे एक दाग के रूप में सामनेे रख कर दिन को और अधिक उदास-उदास कर दिया जाता है
फूल देखता हूँ तो
फूल देखता हूँ तो सुगंध की याद नहीं आती प्रभु. महल देखकर रूकने का मन नहीं करता है. छाँव दिखता है तो थकान नहीं पछाड़ने लगती. गति देखकर पांव कभी विद्रोह नहीं करता.
चमकता चेहरा देखता हूँ जब और होंठों पे मुसकुराहट देखता हूँ तब भी कुछ ख्याल नहीं आता. कोई गुनगुनाता मिल जाता है तो बदन में आग नहीं लगती. कराह सुनता हूँ तब भी डर नहीं लगता.
रोटी देखकर भूख जरूर उग अाती है महाराज. पानी देखकर कंठ सूखने लगता है. स्त्री को चुप और शिशु को बिलखते देखता हूँ तो बस गरियाने का मन करता है.
लेकिन बाहर का दृश्य देखता हूँ तो डर जाता हूँ साहेब.
विचित्र आवाजें सुनता हूँ और चुप्पि ओढ के सो जाता हूँ.
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मिथिलेश कुमार
राय
24 अक्टूबर, 1982 ई0 को बिहार राज्य के सुपौल
जिले के छातापुर प्रखण्ड के लालपुर गांव में जन्म।
हिंदी साहित्य में स्नातक।
सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं व वेब पत्रिकाओं में
कविताएं व (कुछ) कहानियाँ प्रकाशित।
वागर्थ व साहित्य अमृत की ओर से क्रमशः पद्य व गद्य
लेखन के लिए पुरस्कृत।
कहानी स्वरटोन पर 'द इंडियन पोस्ट ग्रेजुएट' नाम से फीचर फिल्म का निर्माण।
कुछेक साल पत्रकारिता करने के बाद फिलवक्त ग्रामीण
क्षेत्र में अध्यापन।
संपर्क
ग्राम व पोस्ट- लालपुर
वाया- सुरपत गंज
जिला- सुपौल (बिहार)
पिन-852 137
ग्राम व पोस्ट- लालपुर
वाया- सुरपत गंज
जिला- सुपौल (बिहार)
पिन-852 137
फोन- 9546906392
ईमेल- mithileshray82@gmail.
com
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
nice poetry बथुआ के साग में भी बड़ा स्वाद है....चाँद की तरह चमकना और तारों की तरह टिमटिमाते रहना रूके-खड़े घरों का सपना होता है. सपना तो खैर सपना होता है.... टकही पत्ता वाली बिंदी देखकर पत्नी फूली नहीं समाती. बच्चे अठन्नी नेमनचूस देखकर किलक-किलक उठते हैं. और क्या चाहिए महाराज! is very true and soul of real poetry ...Pooja.
ReplyDeleteमेरा प्रिय कवि, शानदार कविताएं।
ReplyDeleteबहुत अच्छी kvitayen
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