एक अलग दुनिया की थाह लेती कविता
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दीप्ति कुशवाह |
कविता की दुनिया में अभी भी
बहुत-से ऐसे विषय और प्रदेश हैं, जिन पर हमारी
सामाजिक जकड़बंदियों की वजह से या तो ध्यान गया ही नहीं, या
कि गया भी है तो उन पर उतनी संवेदनशीलता से समग्रता में विचार नहीं किया गया,
जिसकी अपेक्षा रहती है। लेकिन पिछले कुछ सालों से सोशल मीडिया के
आगमन के बाद ऐसे विषयों पर बात की जाने लगी है और ये कविता के विषय भी बनने लगे
हैं। हमारे समाज का ऐसा ही एक बेहद उपेक्षित और सवालिया निगाहों से देखा जाने वाला
समाज है थर्ड जेंडर यानी किन्नर। इस समाज से अब तो लेखक भी सामने आने लगे हैं,
किंतु हिंदी की महत्वपूर्ण और प्रतिष्ठित पत्रिका ‘पहल’ के अंक 103 में प्रकाशित दीप्ति कुशवाहा की
लंबी कविता ‘निर्वीर्य दुनिया के बाशिंदे’ इस अर्थ में महत्वपूर्ण और विचारणीय है कि पहली बार मुख्यधारा वाले
समाज के किसी कवि ने इस उपेक्षित और प्रताडि़त समुदाय की पीड़ा को एक वृहद काव्यात्मक
संवेदनशीलता के साथ पूरी ईमानदारी से अभिव्यक्त किया है।
सात पृष्ठों की इस लंबी कविता
में एक ओर जहां किन्नरों को लेकर ऐतिहासिक संदर्भों के साथ उनके विभिन्न रूपों
की चर्चा की गई है, वहीं दूसरी ओर उनकी यौनिकता के विविध पहलुओं को
समूची संवेदना के साथ व्यक्त किया गया है। किन्नर समुदाय को लेकर जिस तरह की
सामाजिक जिज्ञासा और जुगुप्सा देखी जाती है, दीप्ति कुशवाहा
की कविता उस सामाजिक व्यवहार को प्रश्नांकित करती है और समाज को किस तरह उन्हें
देखना चाहिए, उसी संवेदना के साथ वह पाठक को सह्रदयी बनाती
चलती है। मेरे लिए यह कविता इसी अर्थ में महत्वपूर्ण बन जाती है।
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प्रेमचंद गाँधी |
कविता अपने आरंभ से ही पाठक को
बांध लेती है, जब ‘अपनी ही देह’ को उनके लिए कारा कहकर दीप्ति बहुत गहरी संवेदनशीलता के साथ किन्नरों के
पक्ष में खड़ी होती हैं । फिर धीरे-धीरे वे उन ऐतिहासिक और धार्मिक चरित्रों के
साथ उनके समुदाय की झूठी गरिमा को जोड़कर देखती हैं और उस सामाजिक उपेक्षा की
आलोचना करती हैं, जिसने सदियों से इस समुदाय को शापित कर रखा
है।
-- प्रेमचंद गाँधी
निर्वीर्य
दुनिया के बाशिंदे
अपनी
ही देह कारा है इनके लिए
चिपका
है माथे पर
प्रकृति
की अक्षम्य भूल का कलंक
कोई
दोष नहीं जिसमें इनका
कुल-परम्परा
के
यशोगान
से भरे धर्मग्रंथों में
इनकी
कोई पहचान नहीं
बस
नाम में एक झूठी गरिमा
किसी
धनुर्धारी या सुदर्शनचक्रधारी के नाम से
जुड़ने
के बाद
जो
दिखाती है
किसी
दैवीय परम्परा से सम्बन्ध
कलियुग
में राज करने का वरदान भी
लिखा
हुआ है
वहीं कहीं
पीले पन्नों पर
और
भोग रहे हैं
वर्तमान
का शाप ये बेखबर
सुदूर
अतीत की पीठ तक मिलते हैं
बूची ज़िन्दगियों के प्रमाण
मिस्त्र, बेबीलोन, मोहनजोदड़ो....
अपने
इतिहास में
दबाए
हुए हैं तह-दर-तह
नपुंसक
आहों के निशान
'नपुंसक' शब्द एक गाली की तरह उभरता है
जिसमे
छवि कौंधती है हरम की
जहाँ
वे राजाओं के लिए
रनिवासों
की रखवाली में
आश्वस्ति
का प्रमाणपत्र थे
इनका
उभयलिंगी व्यक्तित्व
मुफीद
था गुप्तचरी के लिए
ख़त्म
हुए राजा, ख़त्म
हुए हरम
ये
बचे रहे
वस्तु
बन गए शरम की
जन्म
लेते ही
परिवार
के लिए बन जाते हैं अबूझ प्रश्नचिन्ह
जगहँसाई
का सबब
बलैयाँ
नहीं ली जातीं
इन
किलकारियों की
जो
माँ के आँचल में उदासीनता
पिता
के हृदय में कटुता घोलती हैं
गुलाबी
या आसमानी कोई रंग नहीं होता
नाथ
वाले इन अनाथों के लिए
बचपन
में मिला नाम भी
साथ
नहीं निभाता दूर तक
दुबारा
नामकरण के साथ
हिस्सा
बन जाते हैं
द्वंद्व
से भरे विरूप संसार का
नकली
उरोजों और स्त्र्रैण पोशाकों के साथ
फूहड़
कोशिशें करते हैं
सम्पूर्ण
स्त्री दिखने की
पुंसत्व
का त्याग एक बड़ा सवाल है
प्रकृति
सौंपती है इन्हें
जीवन
के सफ़र के लिए
धूप, हवा, पानी और अनाज की वही रसद
जो
हम सबके हिस्से में है
संवेदनाओं
में बख्शती है
एक
सी तासीर
नर-मादा
की किमया में डूबे हम
रहते
ग़ाफिल
कि
हमारी फ़िक्र का एक टुकड़ा
कम
कर सकता है
कापुरुषों
के जीवनयापन की यंत्रणाएँ
बढ़ा
सकता है
विरोधाभासों
के विरोध की हिम्मत
यहाँ
घोषणापत्रों में लुभावने वादे हैं
विकास
की परिभाषाओं में
प्रदान
की जा रही सुविधाएँ और आरक्षण
किसी
भी शारीरिक कमी से पीड़ित लोगों को
वहीं इस अवयव विशेष के
अविकास के लिए
सहानुभूति
भी नहीं है किसी के पास
कोई
दंड तय नहीं
उनके
लिए जो दुत्कारते हैं इन्हें
बरसाते
हैं बहिष्कार के चाबुक
कोई
दरवाजा नहीं खुलता इन पर
न
मानव का, न मानवाधिकार का
यौनिक पहचान की बंद भूलभुलैया में
स्वाहा
हो जाने के लिए शापित है
इनका
प्रच्छन्न सामाजिक जीवन
कटु
और मधुर स्मृतियों के
धागों
को तोड़ कर
इन्हें
निकल जाना होता है
अंतहीन
रास्ते पर
जहाँ
नहीं होते माँ-पिता की ममता के पेड़
भाई-बहन
के नेह की लताएँ नहीं होतीं
उस
दुनिया में
आगे
बढ़ते इन क़दमों की किस्मत में
नहीं
लिखी होती कभी घरवापसी
ये
बंजर मरुभूमि हैं
कोई
बीज नहीं डाला जाता आजीवन जिस पर
आर्द्रता
भी नसीब नहीं होती प्रेम की
उपेक्षा
के थपेड़े झेलते हुए
बस
मेड़ पर ठहर जाता जीवन
“हर पुरुष में होती है एक स्त्री
हर
स्त्री में होता है एक पुरुष”
यह कहने वाले ज्ञानी भी नहीं बता पाते
यह कहने वाले ज्ञानी भी नहीं बता पाते
दर्शन
की किस दहलीज पर
होगी
सुनवाई
मनु
के इन वंशजों की
स्त्री
की देह में पुरुष का मस्तिष्क
या
पुरुष की देह में स्त्री का !
डोलते
पेंडुलम सा मन लिये
वे
आपकी ख़ुशियों में
अपनी
खुशियाँ तलाशते हैं
शफ़ा
उड़ेलते हैं अपनी दुआओं की
ताकि
आपका सुख दो का पहाड़ा पढ़ सके
बदले
में दुराग्रह का प्रसाद ले कर
लौट
जाते हैं अपनी निर्वीर्य दुनिया में
किसी
नये संग्राम के स्याह दस्तावेज पर
करने
के लिए हस्ताक्षर
इनके
आकाश की सीमा बस इनकी आँखों तक
किसी
रहस्यमय संसार के बाशिंदों जैसे
अपने
वंश की अंतिम इकाई
ये
अर्धनारीश्वर
थकी
उत्पीड़ित नींद के दौरान
भूले-भटके
आने वाले सपनों में शायद
आता
होगा कोई राजकुमार
सफेद
घोड़े पर हो कर सवार
या
कोई परी करती होगी इंतज़ार
हथेली पर भौंह का बाल रख
क्या
माँगते होंगे वे !
या
उड़ा दिया करते होंगे उसे
बिना
कुछ माँगे
उस
कृपण-कठोर दाता को
दुविधा
से उबारने के लिए
अपनी
सुप्त यौन इच्छाओं में
पहुँचना
चाहते होंगे वे भी
पर्वत
के शिखर तक
उतरना
घाटी की गहराइयों में
किसी
हरहराती नदी में
दूर
तक बह जाने का आनंद
उनके
मन को भी सहलाता होगा
उनका
हित दाखिल नहीं होता
किसी
की परवाह में
बलात् सुख नोंचने
वाले हैं बहुतेरे
पत्र
निकाल कर फेंक दिए जाने वाले
लिफाफों
सी है नियति इनकी
भले
आक्रान्ता नज़र आते हों
ये
अपने व्यवहार में
छुपाए
होते हैं अपने अन्दर
अपने
वंश को अपने साथ
ख़त्म
होते देखने का डर
ठीक
ठीक तर्ज़ुमा कर पाना कठिन है
इनके
बेसुरेपन का
ये
भोगी हुई तल्खियाँ हैं उनकी
जिन्होंने
अंतस की मिठास हर ली है
तालियों
की कर्कश गूँज में छुपी हुई हैं
एकान्त
की शोकान्तिकाएँ
निर्लज्जपन
दिखाकर ढांक लेते हैं
अपूर्ण
इच्छाओं का सामूहिक रुदन
हारमोनों
की
जटिल-कुटिल
दगाबाज़ी में फँसे तृतीयलिंगी
सही
पदार्थ नहीं हैं
नोबेल
के लिए
चिकित्सीय
हलकों में किसी सुगबुगाहट का
बायस
ये नहीं
साहित्यिक
विमर्श की कोई धारा भी
छूते
हुए नहीं निकलती इनको
बाज़ार
में चलने वाले सिक्के भी ये नहीं
शस्त्र
और शास्त्रों में उलझे लोग
जो
हर मनुष्य को उपयोग की वस्तु समझते हैं
इन्हें
उपकरण में नहीं बदल पाए हैं अभी
इसलिए
इनकी मौत की खबर
अखबार
के किसी कोने में नहीं छप रही
नहीं
छप रहा
कि
कुछ लाशें ज़मींदोज़ की जा रही हैं
गड्ढों
में सीधी खड़ी करके
थूकी
जा रही है जिन पर जुगुप्सा
अपनी
ही बिरादरी द्वारा
चप्पलों
से पीटी जा रही हैं
इस
आस में
कि
फिर कभी इस योनि में न लौटें
समय
के समन्दर में
झंझावातों
के बीच
बिना
नाविक, बिना
पतवार
भटकती
हैं जो नौकाएँ
डगमगाती
और झकोले खाती
अंततः
कहाँ जाती हैं
कौन
जानता है !!
***
संपर्कः
दीप्ति कुशवाह
ए-204, पंचायतन
आर. पी. टी. एस. मार्ग
लक्ष्मीनगर
नागपुर - 440-022
09922822699
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
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ReplyDeleteअसाध्य पीड़ा और प्रकृति के अन्याय के ग्रसित ये किन्नर आज अपनी कहानी खुद लिख रहे हैं यह भी एक सच है। पिछले साल के सत्र से पहली बार मुम्बई युनिवर्सिटी के फार्म मे अन्य लिंग के काॅलम बने और प्रथम वर्ष मे अन्य लिंग के श्रेणी मे आने वालो ने अध्य्यन शुरु किया है । उपस्थिती भी हो रही है । दुनिया बदल रही है...। समूचे दर्द को एक जगह संरक्षित कर परोसने वाली यह कविता अतुल्य है..।
ReplyDeleteबहुत आभार पूजा।
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