![]() |
लवली गोस्वामी |
लवली गोस्वामी की कविताएँ ही उनका परिचय हैं – कभी उनका इतर परिचय जानने का अवसर न मिला।
फेसबुक पर सक्रिय कम महिलाएँ हैं जो इतनी सशक्त कविताएँ लिख रही हैं। इस कवि के
पास अपनी एक खांटी भाषा है और बिंबों को रखने और बरतने का एक अलग मिजाज भी। इनकी
कविताओं से गुजरजे हुए एक अलग संसार में धीमे-धीमें प्रवेश कर जाना लाजमि है –
जहाँ जटिलताएँ तो हैं लेकिन ध्यान से देखने पर उम्मीद और रोशनी के कतरे भी बिखरे
दिखायी देते हैं – लेकिन वे यूँ ही न मिल जाएंगे इसके लिए थोड़ा प्रयास पाठक को भी
करना पड़ेगा।
लवली की कविताएँ अनहद पर प्रकाशित कर हमें
अच्छा लग रहा है। हम उन्हें बधाई देते हैं और अनहद के पाठकों से बेबाक
प्रतिक्रिया का अनुरोध भी।
एक
बेहद मामूली प्रेम – कथा
मेरा मन बर्फीली घाटी का वह रास्ता था
जिससे या तो वे भिक्षु गुजरे
जिन्हें लौटना सिखाया ही नहीं गया था
या फिर वे व्यापारी बंजारे जिनका मक़सद
बाज़ार तक जाने वाले नए रस्ते तलाशना था
बंजारों ने मुझे बेकार बीहड़ कहा
वे बसावटों में दुकानदारी जमाने
के लिए
कटने – मरने लगे
दुनियादार ज्ञानियों ने मुझे
नज़र बांधने वाली माया कहा
वे भीड़ जमाकर पत्थर पूजने लगे
तुम्हें देखकर मैंने जाना बीहड़ में
सिर्फ वे बसते हैं जो ख़ुद बहिष्कृत होते हैं
जीवन ने मुझे यह सिखाया
अगर मन नीरव बर्फीले पड़ावों सा हो
तो बसावटों का मोह नहीं करना चाहिए
वे लोग गलत होते हैं जो मानते हैं
कि यात्रा की स्मृतियां
केवल यात्रियों के पास होती हैं ।
चोर देवता
दुःख
के सफ़ेद प्रेत संसार के किसी कोने में
मेरा
पीछा ही नही छोड़ते हैं
मैं जहाँ जाती हूँ वे चोर - देवता की तरह मेरा पीछा करते हैं
मैं जहाँ जाती हूँ वे चोर - देवता की तरह मेरा पीछा करते हैं
मैं
आपको चोर देवता के बारे में बताती हूँ
मेरे बचपन के ये गँवारू चोर - देवता ऐसे देवता नही थे
मेरे बचपन के ये गँवारू चोर - देवता ऐसे देवता नही थे
जिन्हे
आप राजनीति के लिए उपयोग कर सकें
शायद
इसलिए भी वे अप्रसिद्ध रहे
चोर देवता अक्सर असमय - कुसमय मरे बच्चों के प्रेत होते हैं
जिन्हे साधकर इस काम में लगाया जाता है
चोर देवता अक्सर असमय - कुसमय मरे बच्चों के प्रेत होते हैं
जिन्हे साधकर इस काम में लगाया जाता है
कि
अगर घर से कोई समान चोरी हो जाये
तो वे चोर का पीछा करें
तो वे चोर का पीछा करें
उसे
भय और भ्रम में डाल दें
कि
चोर डरकर अपने आप सामान लौटा जाए
ये
प्रेत मेरे बचपन से अभी तक मेरे साथ हैं
मैं ख़ुशी लिखना चाहूँ
मैं ख़ुशी लिखना चाहूँ
वे
उँगलियाँ मरोड़ कर
दुःख लिखवाते हैं
मैं नारे लगाने के लिए चीखना चाहती हूँ
मैं नारे लगाने के लिए चीखना चाहती हूँ
वे
गला दबा देते हैं
कंठ से दहाड़ें मारकर रोती हुई औरतें
कंठ से दहाड़ें मारकर रोती हुई औरतें
और
मुसलसल सताए गए आदमियों की चीखें निकलती हैं
मैं उन्हें नहीं भगा सकती
मैंने चोरी की है अपना अस्तित्व अपने ही बचपन से
मैंने हरे भरे जंगलों से अपने खरगोश जैसे मन को अपहृत करके
मैं उन्हें नहीं भगा सकती
मैंने चोरी की है अपना अस्तित्व अपने ही बचपन से
मैंने हरे भरे जंगलों से अपने खरगोश जैसे मन को अपहृत करके
उसे
तेज़ खंज़र से चीर दिया था
उसके खून से मैं शहरी जीवन का रोजनामचा लिख रही थी
फिर एक दिन मैंने यह अस्तित्व ही नही इसकी स्मृतियाँ भी खो दी
अब मैं चाहूँ तब भी चोर देवता से पीछा नही छुड़ा सकती
वे प्रेत अब हर जगह मेरे साथ होते हैं
सिग्नल्स में कुपोषित फूले पेट के साथ ये प्रेत
मुझसे
गुब्बारे खरीद लेने की जिद करते हैं
मेरे पास पैसे नही हैं मैं सिर्फ इसलिए नही खरीदती
फिर भी वे समझते हैं कि मैं झूठ कह रही हूँ
वे मेरा पीछा करना शुरू करते हैं
हर जगह आफिस लाइब्रेरी पार्किंग
अलमारी के नीचे की धूल झाड़ने
मेरे पास पैसे नही हैं मैं सिर्फ इसलिए नही खरीदती
फिर भी वे समझते हैं कि मैं झूठ कह रही हूँ
वे मेरा पीछा करना शुरू करते हैं
हर जगह आफिस लाइब्रेरी पार्किंग
अलमारी के नीचे की धूल झाड़ने
लगभग
जमीन से सर सटाये
मैं झाडू अंदर डालती हूँ और उनकी आँखें दिखती हैं
भूरे - खसखसे रूखे केशों के बीच
मुझे याद नही आता है
मैं झाडू अंदर डालती हूँ और उनकी आँखें दिखती हैं
भूरे - खसखसे रूखे केशों के बीच
मुझे याद नही आता है
शायद
मैंने उनके हिस्से का तेलभी चुराया हो
मैं
डरकर दीवारों से घिरे कोने में
घुटनों
पर सर रखे सहमी सी बैठ जाती हूँ ।
अवसाद
व्यस्तताओं के अंतिम चिन्ह
निगलता
चला आता है विहँसती रात का
मायावी एकाकीपन
थकी हुई आस का अजगर उत्साह
के हिरण की
सब हड्डियाँ निगलकर निराशा
के श्मशानों में बिखेर देता है
लाल खून को लीलती धमनियों
में
कलकल बहती है अवसाद की
स्याह नदी
नीली होती देह पर
स्मृतियों का विष चढ़ता है
पुतलियाँ अंधकार पीने के
लिए फ़ैल जाती हैं
दुःखों के चीन्हें -
अनचीन्हें प्रेत रात्रि के तीसरे प्रहर
सबसे ताक़तवर होकर ग्रस
लेते हैं
मन की अंतिम परत तक का सुख
तीर सी बींधती नुकीली
चन्द्रमा की किरणें
खिड़की से देह के रेशों की
जड़ों में प्रवेश करती हैं
देह के रोम अपसगुनी ठूंठों
के
चित्रलिखित जंगलकी तरह जाग
जाते हैं
लपलपाती तनाव की लहरें
आशा के सब पोत डूबो कर
कुलाँचे भरती हैं
शैतान की नाभि जैसे गहरे
पीड़ा के भंवर
आँखों की पुतलियों में
निःशंक घूमते
सब सुन्दर दृश्य खा जाते
हैं
टूटे नलके से मन के तल पर
बूंद -बूंद टपकती है
नीरवता
बूंद का तल को स्पर्श हथौड़े
सा लगता है
देह अवसादी चट्टान सी
भरभरा कर ढह जाती है
धमनियाँ झुलसाती तेजाब का
असर लिए
आँखों से देह के भीतर छाती
तक बहती है
आत्मा में फफोले उगाती
अन्तः सलिला लावे की नदी
किसी ने जैसे धरती के आदिम
प्रेमी के सीने पर
खंजर घोंप दिया हो , बरसात में यों
चुपचाप झरता है
अँधेरी सड़क पर आकाश का धवल
रक्त
वीतरागी मन से विद्रोह
करते
“उलगुलान”
चिल्लाते आते हैं आदिवासी मोह
अनुभवों के राजकीय दुर्ग
से टकराकर लहूलुहान हो जाते हैं ।
कविता में अर्थ
एक
दिन मुझे एक अदम्य जिज्ञासु
तार्किक
आदमी मिला
वह
हर बीज को फोड़ कर देख रहा था
कि
उसके अंदर क्या है ?
मैं
उसे अंत तक समझा नहीं पाई
कि
बीज के अंदर पेड़ होते हैं।
****
लवली गोस्वामी फिलहाल बंगलोर में रहती हैं और खूब अच्छी कविताएँ लिख रही हैं।
Bahut khubsoorat kavitayen.
ReplyDeleteगहरे भाव लिए अच्छी कवितायेँ
ReplyDeleteकविता की ऩई रौशनी से हिनदी कविता समरिध होगी .
ReplyDeleteकविता की ऩई रौशनी से हिनदी कविता समरिध होगी .
ReplyDeleteकितनी भी तारीफ़ की जाए कम है
ReplyDelete