घनीभूत और सुसंगठित वेदना की विनम्र मगर
गर्वीली अभिव्यक्ति:
दुश्चक्र में स्रष्टा
विमलेश शर्मा
मसला मनुष्य
का है
इसलिए हम तो
हरगिज़ नहीं
मानेंगें कि
मसले जाने के
लिए ही
बना है मनुष्य!!
(स्याही-ताल,काव्य
संकलन)
ये पंक्तियां एक उम्मीद है ,विश्वास है और आज़ के बिगड़ते
समय और हालात के संबंध में बागी तेवर हैं । तेवर! मनुष्य की मनुष्यता और उसके स्वाभिमान की मशाल को हर हाल में
जलाए रखने के। वीरेन डंगवाल ने यह अभिव्यक्ति स्याही ताल काव्य संकलन में की है,
पर यह बानगी है उनके स्वर की जो उनकी सभी कविताओं में समान रूप से सुनाई देती है।
वह आवाज जो दबाए जाने पर और दहक उठती है, यह दहक, मानवीय स्वरों की यह पुकार
डंगवाल के हर साहित्य सृजन में स्पष्ट रूप से मुखर होती है।
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वीरेन डंगवाल |
कविता
की बात जब भी की जाती है तो कुछ अबूझे से भाव मन के किसी कोने में दीपने लगते हैं। कहीं कुछ
रोमानी तो कभी
चेतना को झकझोरने वाले भाव मन में संचारी भावों की तरह उठने बैठने लगते हैं।
आधुनिक समय की बात साहित्यिक संदर्भों में की जाए तो यह समय साहित्यिक धारणाओं के टूटने
का समय है, अधकचरी भावनाओं के असमय स्खलित होने और उनके गर्भपात
का समय है। इन कविताओं के बीच अगर कोई ऐसा कवि आपके बीच है जिसकी कविताई में ठेठ देशी
मिज़ाज़
हो,कुछ अलग मगर दिल को छू लेने वाले शब्दों को पिरोने की लगन हो, आपके विचारों को विनम्रता से झकझोरने की ताकत हो तो आप अपने आपको भाग्यशाली पाठक मान सकते हैं। वीरेन डंगवाल इस लिहाज़ से समकालीन हिन्दी कविता
में अपना एक अलग स्थान रखते हैं। ‘इसी दुनिया
में’, ‘दुष्चक्र में स्रष्टा’ और ‘स्याही ताल’ वीरेन डंगवाल के महत्वपूर्ण
काव्य संकलन हैं। उनकी लोकप्रियता और साहित्यिक
ऊँचाईयों की बात की जाए तो उनके ‘इसी दुनिया में’ संकलन को रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार
(1992) तथा श्री कान्त वर्मा स्मृति पुरस्कार (1993) प्राप्त हुआ है। उनके दूसरे संकलन 'दुष्चक्र में स्रष्टा ' के लिए उन्हें शमशेर सम्मान और 2004 का साहित्य
अकादमी सम्मान दिया गया है। ये पुरस्कार इनके कहन की विशिष्टता के प्रमाण है। उनकी बहुतेरी कविताएँ और गद्य
अभी भी अप्रकाशित है। वीरेन डंगवाल अपनी
विशिष्ट शैली में लिखते हैं औऱ इसी क्रम में विषय चयन को लेकर वे
सजग हैं।
वे ज़बरन
बुनावट या कारीगरी
का प्रयास नहीं करते वरन् बार बार अपनी सादगी से चौंकाते हैं। वे साहित्य के एक जिज्ञासु
अध्येता रहे हैं। उन्होंने पाब्लो नेरुदा, बर्टोल्ट ब्रेख्त, वास्को पोपा, रोजेविच
और नाज़िम हिकमत के कुछ बेहतरीन अनुवाद भी किए हैं। उनके गहन अध्ययन और संवेदनशील होने का परिणाम ही
है कि उनकी कविताओं में कहीं दिनकर का ओज
है , कहीं शमशेर सा भाषायी सौन्दर्य है, कहीं नागार्जुन सा लोक तत्व सांसे लेता है
,कहीं निराला सी भावुकता है तो कहीं देवताले
सी शाब्दिक व्यंजना। परन्तु साथ ही वे अपने रचना कर्म से सभी कवियों से इतर अपनी पहचान भी गढ़ते
हैं। बँधी बँधाई परम्पराओं के विरूद्ध वे अपनी
वैचारिकी से लेखकीय चेतना का एक नया मुहावरा साहित्य जगत में रचते
हैं।
हम
यहाँ बात कर रहे हैं उनके दूसरे काव्य संकलन ‘दुश्चक्र में स्रष्टा’ पर जो कि
अपनी संवेदना और शिल्प में बेजोड़ है। उनकी इस संकलन की कविताओं की विशेषता है कि वहाँ
एक अजीब सा धैर्य उपस्थित है, वहाँ एक प्रतिरोध है जो बेआवाज़ टूटता है। यहाँ एक सोच है जो शुभता की हत्या
के खिलाफ है परन्तु ये सब लिखते हुए भी वे आक्रोश को ज़ज्ब कर जाते हैं और यही है
जो
उनकी कविताओं में एक ठहराव उत्पन्न करता है। ये कविताएं तमाम प्रतिकूलताओं के बीच भी जीवन का राग ढूँढ लाने का हुनर भी रखती हैं और
इसके लिए वे एक सर्वथा अलग रास्ता तय करती हैं।
वहाँ खुद को प्रचारित करने का कोई प्रयास नजर नहीं आता वरन् एक साधना और विषयों को बहुत करीब से देख पाने का भाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। उनकी कविताएँ ना सिर्फ अपना समय बताती हैं वरन् उसकी तमाम विसंगतियों पर कभी व्यंग्य के
माध्यम से तो कभी आक्रोश के माध्यम से अपना प्रतिरोध भी दर्ज़ करती
हैं।
हालांकि यहाँ प्रतिरोध सहज़ है पर वो नावक के तीर जितना ही मारक है। इस संग्रह
की कविता शुरू होती है हमारी नींद से और समाप्त होती है लकड़हारे की अधूरी
कविता पर। व्यापक फलक पर अनेक विषयों को समेटती हुई इस संग्रह की 76 कविताएँ वाकई
बेजोड़ हैं। दुश्चक्र में स्रष्टा कविता जो कि उनके विवेच्य काव्य संकलन का
नाम भी है औऱ संकलन की
प्रतिनिधि कविता भी, समय
के साथ कदमताल करती हुई संशय, भय और हाशिए के तमाम विषयों को अपने कहन में समेट लाती
है। अपनी प्रारंभिक पंक्तियों में ही अदीब बड़ी ही बेबाकी से उस सृष्टि के नियामक
और पालक से सवाल कर बैठते हैं कि आखिर तुम क्या बुनना चाहते थे, :
“क्या-क्या बना दिया, बना दिया क्या
से क्या” (दुश्चक्र
में सृष्टा कविता, पृ.23,24)
सृष्टि
की हर चीज़ मानो अपने नियम के विपरीत
चल रही है। उस स्रष्टा ने
पर्वत
रचे और उन्ही से बगैर विद्युत निकलने वाली नदियाँ भी। पर इसी के पश्चात् सहसा व्यंग्य
करते हुए कह उठते हैं कि :
“फिर क्यों
बंद कर दिया तुमने
अपना इतना कामयाब
कारखाना?
नहीं निकली
नदी कोई पिछले चार - पाँच सौ साल से
ना बना कोई
पहाड़ अथवा समुद्र
एकाध ज्वालामुखी
ज़रूर फूटते दिखाई दे जाते हैं
कभी - कभार।
” (दुश्चक्र में सृष्टा कविता, पृ.23,24)
वे प्रश्न करते हैं उस स्रष्टा
से कि तुम जहां सौहार्द गढ़ रहे थे वहाँ अचानक आतंक और खून से लबालब हत्याकांड और नरसंहार
कहां से आ गये । वे ईश्वर को
कटघरे में खड़ा कर उससे धर्म और साम्प्रदायिकता पर प्रश्न पूछते हैं। कवि यहाँ
मानवता के पक्षधर के रूप में सामने आया है। कविता
की ये पंक्तियाँ आंदोलित करती है कि नहीं निकली है कोई नदी और अंततः कवि मन हताश हो
कह उठता है कि जहाँ कल तक कल - कल नदियों के स्वर थे वहाँ आज बाढ़ और अकाल कैसे आ गए। यहाँ वे फरनांदों
पेसोआ का वैपरित्य रचते हैं। पेसोआ कहते हैँ ईश्वर हमारे सन्मुख अभिव्यक्त नहीं
होना चाहते थे ठीक इसीलिए उसने पेड़, नदियाँ और पर्वत गढ़े। उसने आसमान रचा ताकि
हम उसी की तरह शांत हो सके। यहाँ कवि भ्रमित है औऱ इसीलिए
वे
कहते हैं,
ज़रूर
उस सर्जक ने अपना कारोबार अन्य के हाथों सौंप दिया है, संसार आज उस वास्तविक ईश्वर के हस्तक्षेप की प्रतीक्षा
में हैं जो प्रेम,सौहार्द्र औऱ सौम्यता गढ़ता है। यही कारण
है कि कविता के अंत में विक्षिप्त
शब्दों में उस भगवान को खोजते हुए वीरेन कह उठते हैं:"
किस घोंसलें में जा छिपे हो भगवान? कौन
- सा आखिर है वह सातवाँ आसमान?हे, अरे, अबे, ओ करूणानिधान!” (वही, पृ.24)
संकलन की पहली कविता ‘हमारी नींद’ अवचेतन
मन की वैचारिक सृष्टि है जहाँ विचारों के अवसान के बाद कवि वास्तविकता में हुए बदलावों
को देख चकित हो उठता है। कवि मन विगत की स्मृतियों में खोया हुआ है परन्तु उसकी इस
तंद्रा से परे कहीं सृजन तो कहीं विध्वंस हो रहा है। इसी कविता में आगजनी और बमबारी
है तो कहीं आक्रोश के उठते स्वर भी हैं जो स्वंय को बचाने के लिए एक पुरज़ोर इनकार
करना सीख गए हैं, हालांकि वे
संख्या में अभी कम हैं : “और लोग भी हैं, कई लोग हैं, जो भूले
नहीं करना, साफ़ और मज़बूत इनकार।” (हमारी नींद कविता, पृ.11)
वर्तमान समय में हम बहुत कुछ बिसरा चुके हैं और खण्डित
आस्थाओं के ध्वंस गढ़ों पर जीवन जी रहे हैं। यह समय भद्र और ताकतवर समाज के लिए सुकून और चैन का समय है। नयी कविता में जिस लघु मानव को स्थापित करने का
प्रयास किया गया था और सत्तर के दशक बाद जिसे भूला दिया गया उसी लघुमानव को वीरेन हाशिए
से उठाकर केन्द्र में ले आते हैं और व्यंग्य कसते हुए हड्डी खोपड़ी खतरा निशान
कविताएँ लिख डालते हैं : “विधानसभा कभी की वातानुकूलित की जा चुकी, मान लिया भद्र लोगों
को कोई खतरा बाक़ी बचा, हड्डी खोपड़ी विहीन वह शुभ दिन, आ ही गया हमारे देश में।” कवि की यही व्यष्टि
भावना 'हमारा समाज' कविता में चित्रित होती है। आज कलुषित भावनाओं का काला जादू
हर मन पर छाया हुआ है और यह संसार चूँकि अवचेतन मन की ही अभिव्यक्ति है तो जैसा भीतर
उसी की अनुकृति बाहर। यहां कवि की एकमात्र
चिंता है कि आखिर ऐसा समाज किसने रच डाला जिसमें बस वही दमकता है जो काला है। यहां हर किसी की ख्वाहिश है कि उसे प्यार मिले,
भोजन मिले, बीमार हो तो इलाज हो, थोड़ा ढब से परन्तु
आज सिर्फ़ और सिर्फ़ वही दमकता है जो काला है और कालेपन की वही संतानें काली इच्छाओं
की बिसात बिछा कर निर्दोष और सज्जनों का सरेआम चौराहे पर कत्ल कर रही है। यही कारण है कि कविता की अंतिम पंक्तियों में आम जन
को चेताने की कोशिश करते हुए एक बेहद ज़रूरी सवाल
खड़ा होता है कि, “ बोलो तो, कुछ
करना भी है, या काला शरबत पीते पीते मरना है?”
(हमारा समाज-पृ.14,15)
कौन
कहता है कि नयी कविता या हाल की लिखी जा रही
कविता केवल गद्यात्मक बन कर रह गई है। यहाँ इसी धारा में कुछ ऐसा भी है जो संवेदनाओं को चुनकर उन्हें उन्हीं के
स्वरुप में आत्मा के स्तर पर स्थापित कर देता है।
वीरेन
डंगवाल के यहाँ जिस तरह का विषय कविता का है उसी के अनुसार
कविता की भाषा और शिल्प तय हो जाता है। 'बसंत दर्शन' कविता को ही लें तो
वहाँ कविता के एक अंश में प्रकृति की बासंती सुबह की झलक है तो दूसरे अंश में ऐसे काव्य
बिम्ब को उकेरा गया है जिसमें दो आँखें, दो आँखों के मन की टोह लेने लगती है। इस तरह
एक ओर प्राकृतिक बसंत है तो दूसरी ओर मन का बसंत। शब्दों की अद्भुत कारीगरी ने भी इस
कविता के अलग शिल्प का निर्माण किया है। कविता का दूसरा अंश नवीन प्रयोगों के कारण विशिष्ट बन पड़ा है
:"वह मुझे घुड़कती गयी एक मोटरसाइकिल,
अति रंगदार, जूते सफ़ेद पहना सवार, नज़्ज़ारा गोया टीवी का, वह मुझे घुड़कता
घुर्र - घुर्र वह नज़्ज़ारा, यह आया है ऐसा वसंत जिसमें हम बनें फ़क़त दर्शक, केवल
कद्दू।”(बसंत दर्शन,
पृ.-18 )संग्रह
की सूखा और मानसून का पहला पानी कविताएँ समकालीन समस्याओं और चूकती संस्कृति
के बीच किसी पुल की तरह है। कवि संस्कृति की गागर को टूटने के बाद भी सहेजकर रखने की
जद्दोजहद में रत है। मोटरसाइकिल पर सैनिक कविता में बिम्ब वैषम्य है । एक
तरफ एक सैनिक है जो अपने काम को सिर्फ एक औपचारिकता
के तहत करता है वहीं इस घटनाक्रम को बेरोजगार सुशील देखता रह जाता है।
आएंगे, उजले
दिन ज़रूर आएंगे कविता निराला
को समर्पित करते हुए लिखी गयी
है।
यद्यपि आतंक, वैमनस्य और आकाश उगलता अंधकार चहुँ ओर व्याप्त है परन्तु कवि आशान्वित
है कि आयेंगे उजले दिन ज़रूर। यहाँ यह लिखते हुए काव्य आत्मा
बिल्कुल खरी और स्वाभाविक बन पड़ती है और वह सामाजिक
चेतना की ओर बढ़ती
हुए
दिखाई जान पड़ती
हैं।
यहां यह भी कहा जा सकता है कि लेखकीय चेतना अपनी सामाजिक चेतना को अपनी काव्य संवेदना
का हिस्सा बन जाने का आह्वान कर रही है। तमाम विसंगतियों के परे यहाँ एक आश्वस्ति भाव भी मुसलसल
झलकता है कि, " मैं नहीं तसल्ली झूठ - मूठ की देता हूँ,
हर सपने के पीछे सच्चाई होती है, हर दौर कभी तो खत्म हुआ ही करता है, इसके आगे भी तब
चलकर जाएंगें, आयेंगे उजले दिन ज़रूर आएंगें”..(उजले दिन ज़रूर,पृ.26) यहाँ कविता का यही आशावादी दृष्टिकोण ही महत्वपूर्ण है। यही कविता और उसके
भावों का विस्तार ही 'शमशेर' कविता है। जिसमें कहा गया है कि "रात आईना है मेरा, जिसके
सख़्त ठण्डेपन में भी, छुपी है सुबह, चमकीली साफ़”।(शमशेर कविता,पृ.28)
यह
कविता तमाम राजनीतिक, सामाजिक समीकरणों और हाल की स्थितियों में भी आशा का संचार करती
नज़र आती है। कवि का कहन है
कि उम्मीद की हर किरण का पीछा अवश्य करो, नई सुबह की इबारत ज़रूर मिलेगी। पोस्टकार्ड
- महिमा कविता भी इस यांत्रिक होते मलिन समय की कविता है जिसमें उन चीजों को
सहेजने का प्रयास है जो मन के किसी कोने में उम्मीद जगाती है। पोस्टकार्ड के रूपक के माध्यम से उज़ली और मलिन दोनों मानसिकता
पर प्रहार किया गया
है। पोस्टकार्ड में कुछ छुपाकर रखने की गुंजाइश नहीं है इसी
पारदर्शिता के कारण कई लोग उसके प्रयोग से गुरेज़ करते हैं। “
उनसे परहेज़ करते हैं राजपुरूष और षड्यंत्रकारी, तस्कर और गुप्तचर संचार मंत्री उनसे
कुढ़ता
है, बूढ़ों के वे प्रिय संदेशवाहक, पहले कड़क थे, धीरे-धीरे मौसम ने म्लान किया उन्हें,
मगर उन्होंने विलुप्त न होने दिया, अपने दिल पर लिखे अक्षरों को, भले लोगों की तरह..”
और
कविता के अंत में इसी पोस्टकार्ड के माध्यम
से उज़ली उम्मीद का बिगुल बज़ उठता है कि - “ उन्हें इंतज़ार है उस दिन का,
जब उनके चौड़े सीने पर लिखी जायेगी, प्यार - मुहब्बत की बातें, ऐलानिया!” (पोस्टकार्ड महिमा,पृ.42 ) कविता को इस तरह एक अलग परन्तु
सर्वथा रोचक तरह से अंत पर लाकर छोड़ना वीरेन की विशेषता है। ऐलानिया शब्द यहाँ
ध्वन्यात्मकता प्रदान कर कविता को मुखरता प्रदान कर रहा है तो वहीं कान पूँछ दबाए
घरेलू कुत्ते की तरह तुलना मानवीकरण अलंकार की सृष्टि कर एक अद्भुत बिम्ब का
निर्माण कर रही है।
वीरेन
अपनी कविताओँ में कहीं कहीं वैचारिकता
का चोगा उतार सहज़ मनुष्य के रूप में भी नज़र आते हैं और वहाँ वे किसी दीवार से सर
टिकाए अपने गहरे अवचेतन में उतरकर नींदें कविता लिख डालते हैं। जिसमें कामना
है,
तमाम
संघर्षों, चिंताओं से परे उस नींद की जो जीवन के कशमकश से परे है और जहाँ ये सब हैं
वहाँ नींद के भी अपने अपने ढब हैं। यही कारण है कि नींद को छतरियों का रूपक देते हुए
वीरेन कहते हैं -
“नींद की छतरियाँ
कई रंगों और नाप की
हैं।
मुझे तो वह नींद सबसे
पसंद है
जो एक अज़ीब हल्के-गरू
उतार में
धप से उतरती है।” (नींदें, पृ.-44)
इसी अवचेतन
में व्यवस्था से बौराया मन एक
नितांत अपने घर की कल्पना भी करता
है ,जहाँ टुकड़ा टुकड़ा बारिशें हैं, ताजी हवाएँ हैं , वृक्षों की हरियल पंक्तियाँ
हैं औऱ माथे पर आशीष बरसाता आसमान है । यहाँ वैशिष्ट्य औऱ कलात्मकता देखिए कि यहाँ नीली
पोलीथीन को आकाश का रूपक दिया गया है और फर्श बुना गया है चाँदनी के चौकोर टुकड़ों
से। यहाँ दीवारें पोती गयी हैं दोस्तों की दुआओँ और देवताओं के
आशीषों से , सम्भवतः ऐसा ही अपना घर सुकून दे सकता है।
घर
, एक मध्यवर्गीय व्यक्ति का सपना होता
है जिसे वो बड़ी जुगत से जुटा पाता है और लेखक भी यहाँ जिक्र करते हैं कि उन्हें
यह घर नसीब हुआ है अधेड़ उम्र में किसी दिप दिप ख़्वाब की तरह और इसीलिए इस सात
कोने वाले घर में मध्यवर्गीय मानसिकता के अनुसार स्मृतियों का बिछावन होता है।
वहाँ एक कोना पिता के लिए है, एक दम्पति के लिए, एक बच्चों के लिए, एक कोने में
ब्रेख़्त और मार्क्स की तसवीरों से अटा वैचारिक कोना है औऱ एक कोना जो गुप्त है वो
भगवान के लिए जिसके सामने अपने तमाम कृत्यों का लेखा जोखा देना ज़रूरी है। घर से
मोह औऱ मोह में मन आजीवन बँधा रहता है इसीलिए ये शब्द उकेरे गए हैं कि- “ यों हर ज़रूरत को ध्यान में रखकर बना, एक सात कोंनों वाला घर मुझे
मयस्सर हुआ / यह घर सारा जीवन मेरे साथ चलेगा, बैंक की किश्तों की तरह।”(अपना घर, पृ.48)
परन्तु
तुरंत ही किसी दुःस्वप्न की भाँति उस व्यक्ति की
सुखद
कल्पना में खलल पड़ता है और वह लौट आता है
निस्सार संसार
के बीच औऱ बन पड़ती है कविता जहाँ
मैं हूँ
। जीवन के अपने उतार चढ़ाव होते हैं हर जीवन जितना आसान दिखाई देता है अपनी
वास्तविकता में उतना आसान कभी नहीं होता। कहीं भ्रष्ट शासक कोई व्यूह रचते हैं तो
कहीं कोमल भावनाएँ काँच की मानिंद टूटती है। . “जहाँ नशा
टूटता है ककड़ी की तरह, जहाँ रात अपना सबसे डरावना बैंड बजाती है,सबसे मद्धम सुरों
में / जहाँ कोई युवा विधवा अकेले में रोती है चुपचाप-
चौतरफा बोझ है संसार”(जहाँ मैं
हूँ, पृ.47) यहाँ कविता अपनी संक्षिप्तता में भी पूरे गाम्भीर्य
और भावों को समुचित विस्तार के साथ
प्रकट करने में सिद्धहस्त है।
कवि अपने
प्रतीको में वाकई अनूठा है इसीलिए तेईस बरस की कोरी उम्र को पुरानी उम्र
करार देता है। वीरेन शब्दों से मनमाना
कहलवाते हैं और लिखते हैं फेफड़ों में पिपरमिंट सी शीतल हवा का स्वाद। अपनी इसी
उम्र में लेखक कई कई कोरे ख़्वाब देखता है वह सोचता है कि अभी उसकी कोमल भावनाएं
उतनी भी कंक्रीट नहीं हुई है अभी भावनाओँ का ज्वार भाटा शेष है और शेष है एक कोमल नज़र जिससे वह प्रकृति का
सामीप्य महसूस कर पा रहा है और इस बात को बतौर रूपक वह इन शब्दों में पिरोता है- “ पानी सोखकर धुली हुई नयी ईंटों से बनना शुरू हुई ही है, स्वप्नों
की वह बहुमंजिला इमारत ,जो जस की तस छूट गयी है , एक शताब्दी के लिए।”(पुरानी उम्र,पृ.46)
प्रतीकों और
भाषा शैली की दृष्टि से जो कविता सर्वाधिक अपना ध्यान खींचती है उसमें रात -
गाड़ी कविता अप्रतिम है। रात को प्रतीक के रूप में पहले भी अनेक कवियों ने
उकेरा है परन्तु वीरेन पूरी की पूरी रात गाड़ी लेकर हमारे समक्ष उपस्थित हैं। रात
को गाड़ी का रूपक देकर समय की विद्रूपताओँ
पर करारा प्रहार सम्भवतः पहली बार किया गया हैं। आधुनिक समय हमसे ना जाने क्या-
क्या छीन कर ले गया है , वहाँ निःशेष है तो सिर्फ आत्मग्रस्त छिछलापन। विज्ञान और
विकास के इस य़ुग में ऐसा कुछ नहीं है जो कम हुआ है, यहाँ दुख और चिंताएँ और अवसाद बढ़ता
ही चला गया है। कोमल भावनाएँ और सहजता ध्वंस अवशेषों सी रह गयी है , विरल है जो
अगर कहीं दीख पड़ती है तो सौ-सौ गिद्ध पीछे पड़ जाते हैं। यहाँ माध्यम बनाया गया है पत्र शैली को जिसमें अपने
प्यारे मित्र मंगलेश को जीवन की गाड़ी में इस अमावस रात्रि के
अपने सफर की बात कही गयी और बताया
गया है कि आखिर कैसे नीम नींद के समय में जी रहें हैं हम । एक बानगी देखिए-
“रात चूँ-चर्र-मर्र जाती है
ऐसी गाड़ी में भला नींद कहाँ आती है?
प्यास लगी होने पर एक ग्लास शीतल जल भी
प्यार सहित पाना आसान नहीं
बेगाने हुए स्वजन
कोमलता अगर दीख गई आँखों में ,चेहरे पर
पीछे लग जाते हैं कई-कई गिद्ध और स्यार
बिस्कुट खिलाकर लूट लेने वाले ठग औऱ बटमार
माया ने धरे कोटि रूप
अपना ही मुल्क हुआ जाता परदेश।
प्यारे मंगलेश।”(रात-गाड़ी कविता,पृ.78)
भाषा स्व अभिव्यक्ति का कारक तो होती ही है साथ ही वैयक्तिक भाषा औऱ शैली गढ़ने
का माध्यम भी, यही कारण है कि भाषा हर लेखक की एक स्थापित पहचान बन जाती है। भाषा
की बात की जाय तो यहाँ साहित्यिक और आम
बोलचाल दोनों प्रकार की भाषा के स्पष्ट उदाहरण मिलते हैं। बोलचाल की सामान्य जुबान
तो हर कहीं आसानी से मिल जाती है परन्तु साहित्य की प्रांजल भाषा के दर्शन हर कहीं
नहीं मिल पाते हैं। कविता महज़ संवाद भर ही
नहीं होती बल्कि उसकी सार्थकता तभी है जब वह वैचारिक संवाद भी हो। संवाद के लिए आम शब्दों का चयन किया जा सकता है
परन्तु जब संवाद विचार तत्व का वाहक बन जाता है तो उसकी भाषा कुछ अलग बन जाती है
औऱ इस भाषा को लेखक अपनी पृष्ठभूमि और एक हद तक परिवेश से ग्रहण करता है। आम भाषा में अधिकांशतः सामान्य शब्द होते हैं
जो इतना प्रभाव नहीं छोड़ पाते परन्तु वैचारिक कविता में शब्द जादुई प्रभाव छोड़ते
हैं। वे शब्द
इतना गहरा प्रभाव पाठकों के मन पर डालते
हैं कि उसकी एक बौद्धिक जमीन भी तैयार हो जाती है
। वस्तुतः कोई भी लेखक अपने कहन के साथ साथ कुछ
औऱ ध्वनित करना चाहता है इसलिए वह एक विशिष्ट भाषा का चयन करता है। वहाँ उद्वेग प्रमुख होते हैं। इसी विशिष्ट भाषा का चयन करते
हुए कवि अनेक कविताओं में लिखता है, “महसूस करता फेफड़ों का सुशीतल पानी निगलना ”,
‘मन लेकिन काकड़-हिरण –हष्ट- पुष्ट- नीलगाय’, ‘ संजोए हुए रूपहले केशों पर गौरैया ने डाल दिए थे तिनके’, “फर्श के लिए मैं चोरी से काटता रहा चाँदी के चौकोर टुकड़े”, “समय अंतहीन है और विपुला है हमारी पृथ्वी”।
भाषायी सामर्थ्य की दृष्टि से रात –गाड़ी कविता बेजोड़ है ।जहाँ
टेलिविजन को छोटी नस्ल के व्यक्तित्वविहीन कुत्ते की संज्ञा दी गई है,अखबार को भाषा
की खुजाती हुई आँत , विश्वविद्यालयों को बेरोजगारों के बीमार कारखाने और दाँत को सबसे विचित्र हड्डी की संज्ञा दी है। ये
संज्ञाएं कुछ अजीब हैं जो कविता के माधुर्य तत्व से मेल नहीं खाती है परन्तु कविता
में हमेशा माधुर्य गुण हो यह लाजमी तो नहीं। यहाँ एक चिंता को वहन करने का प्रयास
किया गया है जहाँ रूमानीयत के शब्द नहीं
हो सकते। प्रतीक और बिम्ब भी यथार्थ का चित्रण करेंगें अतः यह भाषा समकालीन कविता
की सबसे प्रभावशाली भाषा मानी जाएगी। शिल्प की दृष्टि से नूतन बाइस्कोप और पोदीने
की बहक कविता का ज़िक्र भी यहाँ आवश्यक है। नूतन बाइस्कोप कविता सभी
वस्तुओँ ,घटनाओँ औऱ विषयों को नए समय के अनुसार देखने की माँग करती है। एस.
सौन्टेंग कहते हैं वहीं घटनाएँ और विषय लिखे जाने चाहिए जिनमें दर्द हो,
संवेदनाएँ हो और एक चीख हो जो पाठक को
भीतर तक उद्वेलित कर दे। यही बात वीरेन अपनी कविताओँ में उतारते हैं। इसीलिए कविता
में करूणा के वितान की बात जगह जगह कही गयी हैं,
जहाँ तक आज सिर्फ आम व्यक्ति की ही
पहुँच है। और इसी लिए वे कहते हैं, “ हम रोयेंगें तो बादल भी शर्माएगा/ वह ग्लिसरीन की
तरह मगर चमकाएगा ”।( नूतन बाइस्कोप- पृ.86)
कई कई जगह डंगवाल की कविताओँ में इतनी बारीकियाँ , कलाबाजियाँ दीख पड़ती है कि
मन उनका मुरीद हो उठता है। कविता वास्तव में कहन की विशिष्टता औऱ शब्दों को एक
विशेष ढंग से प्रस्तुत करने का सांचा है यह बात वे कई कविताओं के माध्यम से सिद्ध
करते हैं,जैसे कि वे कहते हैं- “ये फूल
जैसे फूल नहीं लेकिन सबसे ज्यादा फूल” और “इस लगभग रंगहीनता में गट्ठर बाँध कर रखें हैं कई इन्द्रधनुष”। यह केवल वीरेन ही लिख सकते हैं। असंभव में से भी संभव को तलाश लाना औऱ
वो भी इस तरीके से कि जो पहले कभी कहा ही नहीं गया हो। जीवन का राग पक्ष महत्वपूर्ण
है मगर आज इसकी परवाह किसे है.. “इनके मारे मर गया
निराला बिना बात, वरना कवि अच्छा- खासा था, बदनाम हुआ”।
कवि अपनी ही बात को आगे बढ़ाता है और कह देता है, “छोड़ो
ये बातें तो दीगर किस्सा है”। (नूतन बाइस्कोप-पृ.86)
भाषा के साथ साथ वीरेन की शैली भी सर्वथा अलग है। पोदीने की बहक कविता अपने
रोचक शीर्षक के साथ साथ अपनी शैली में भी अनूठी
है । कितना अलग अनुभव और कितनी सादा अभिव्यक्ति है कहन में कि सब्जी ठेले की वह तर खुशबू अलौकिक है और वह छा जाती है
जैसे ब्राह्मी आवला कैश तैल की स्वातंत्रयोत्तर सुगंध। यहाँ सुगंध स्वातंत्रयोत्तर
है यह गढ़ना वाकई क्रंतिकारी है। लेकिन तमाम पाश्चात्य सुंगधों में कवि के ऊपर
देशजता हावी है इसीलिए वे उसे अलग बताते हैं। इस कविता में केवल एक प्रतीक की बात
नहीं की गयी है वरन् पग पग पर अनूठे प्रतीक गढ़कर कवि चौंकाते हैं। चिड़ियों की
सूखी- ताज़ा बीट प्रागैतिहासिक काष्ठकला
के निरभ्र नमूने सरीखी और वकील की आँखों में कभी राममनोहर लोहिया का
संविधान हुआ करता था आज मोतियाबिंद छाया हुआ है जैसी पंक्तियाँ कविता में इतिहास
औऱ वर्तमान के बीच पुल सा काम करती हैं। हालांकि कविता का शिल्प औऱ कथ्य दोनों ही
उलझा हुआ है परन्तु जगह जगह आयी प्रतीकों की ये बारीकियाँ बरबस ही ध्यान खींच लेती
हैं।
विनम्रता
सबसे गर्वीली ताकत है जिसे अक्सर विरोधी और
ताकतवर लोग शून्य मान बैठते है। यह इल्म बहुत कम लोगों के पास होता है जो
शायद अभी पूर्णता से अभिव्यक्त भी
नहीं हो पाया है इसी बात को गणित की सैद्धांतिकी के माध्यम से इस
शब्दचित्र में उकेरा गया है-,
“शून्य ही है सबसे ताकतवर
संख्या
हालांकि सबसे नगण्य भी।”...( माथुर साहब को नमस्कार,पृ.75
)
मन की गति सबसे तेज है इसीलिए लेखक इस मन की राह पकड़ कर स्मृतियों के सहारे कई
कई किलोमीटर
की दूरी तय कर कभी बचपन
तक पहुँचता है तो कहीं गोपालक दिनों में कन्हाई के किसी दिन को याद करता है। कभी स्वंय को वे कान्हा
की ही तर्ज़ पर पीत पट धारण किए हुए पाते हैं।
यमुना के उसी तट पर अटखेलियां करते है , सुस्ताते है और कन्हाई के गोपालक दिनों को
कन्हाई के दिन का प्रारम्भ कविता में फिर फिर जी
जाते हैं।
कविता की श्रृंखला में जलेबी कविता स्वतंत्रता के प्रतिफल को अभिव्यक्त
करती है जिसे खाने को हर कोई लालायित है पर उसके पीछे की गई तैयारियों, बरसों से
की गई साधना और अभ्यास को आज इसके रसभरे स्वाद के आगे सब भूला बैठे हैं , इसी
पीड़ा के तहत कहा गया है-
“सिंककर खिली
किसी फूल जैसी
वह सुन्दर और सरस
पेचीदा सरसता।” (जलेबी कविता से..पृ.83)
बचपन की स्मृतियों
की ही इस श्रृंखला का अगला पड़ाव है, मिष्ठु का मामला कविता जिसे शंकर शैलेन्द्र को याद करते हुए लिखा या है । कविता हमेशा विचार से ही बड़ी नहीं बनती वरन् अक्सर कहन
भी उसे बड़ा बनाता है। विवेच्य कविताएँ इसी बात को सिद्ध करती हैं।
मिष्ठु का मामला कविता मन को भाने वाले श्रेष्ठ शब्दों को लेकर बुनी गई है।
खूबसूरत लयात्मकता के साथ
लिखी गयी इस कविता में लेखक सारे रंग उतार कर ले आए हैं। कविता का प्रारम्भ ही
बचपन की अनेक पत्र पत्रिकाओं से पुनः साक्षात्कार करवा देता है.. “ मिष्ठु प्यारी बच्ची थी, लगभग चंदनबाड़ी थी। उसकी थी जगमग मुस्कान,उसके
सात रंग के होंठ।” (मिष्ठु का
मामला,पृ.89) कवि को इस चरित्र में फूलों का हास और बादलों का रोर एक साथ दिखाई देते हैं अजीब
विरोधाभास है परन्तु यह विरोध भी एक रस का निर्माण करता है। कवि अंत में अपना भी
हाल बताते हुए कहते हैं कि मीता मिष्ठु, जीवन की आपाधापी में जो सहज था ,सरल था वो
कहीं बहुत पीछे छूट गया है। निर्मल नेह और हास परिहास कहीं खो गया है, दोस्तों की
सहज मुस्कानें कहीं खो गई हैं अब बची है तो सिर्फ और सिर्फ स्मृतियाँ। इन बदलती
स्मृतियों में देह-धर्म , जीवन –धर्म सभी कुछ बदल गया है और ऐसे में मैं सिर्फ
इन्हीं स्मृतियों को लेकर हर व्यक्ति स्वंय लेखक की ही तर्ज़ पर कुछ आगे बढ़ पाता
है । अवचेतन की ही इस श्रृंखला की एक कड़ी है बुखार कविता जिसमें बुखार का
एक शाब्दिक चित्र खींचा गया है । यह बिम्ब अब तक का सर्वथा नया और संभवतः सबसे
अनूठा बिम्ब है जिसमें बुखार के ताप की तुलना भैंस के गरम थूथन से की गयी है तो सिरहन की
तुलना हवा से सिहरते गेहूँ की बाली से–“ मेरी नींद में अपना गरम थूथन
डाले, पानी पीती थी एक भैंस/ मैं पकता हवा से सिहरते
गेहूँ की तरह धूप के खेत में।”.(बुखार कविता,पृ.99)
कवि
वीरेन पर बहुत से लेखकीय व्यक्तित्वों का प्रभाव है। कवि निराला उन में से एक है। कवि के संचित
अनुभव लोक से ग्रहण किए हुए होते हैं। उन्हीं के बीच वह अपने उत्सवों और एकाकीपन को
जीता है। नींद, अनिद्रा, बूढ़ी ठठरी भैंस और लहर टूटती हुई सभी अनुभूतियों में वह अपने आपको जीता है। बाँदा कविता इस एकाकीपन
के लोक में साधारणीकरण होने के भाव को लेकर चलती है। इसी एकाकीपन में वे निराला को
फिर फिर संबोधित करते हैं । फैज़ाबाद-अयोध्या
कविता भी वे
फिर निराला को याद करते हुए लिखते हैं। वीरेन आज भी इस अयोध्या की धरती पर उस राम
को खोजते हैं जो संशय ग्रस्त है और जिसका चित्रण निराला ने राम की शक्तिपूजा
में किया गया है। वस्तुतः काव्य
चेतना को प्रस्तुत करते समय लेखक पुरातन औऱ आधुनिक युग के बीच एक कड़ी का काम करता
है, वह पौराणिक संदर्भों में फिर वर्तमान को खोजता है औऱ इन्हीं संदर्भों में कभी
खुद को वह फैज़ाबाद में तो कभी निराला की अयोध्या में पाते हैं। कवि स्टेशन की आवाज़ाही और बैचेनी में संशकित
राम को खोज़ते हैं और कह उठते हैं –
सरयू दूर
थी यहाँ से अभी
दूर थी
उनकी अयोध्या...
(फैज़ाबाद-अयोध्या, पृ.-31,32)
यह टोहना, खोज़ना
जारी है क्योंकि कवि राम के उस संशय विरहित पक्ष से
भी मुख़ातिब है इसलिए इसी कविता के तीसरे पक्ष में वे फिर उसी के पगचिन्हों
को ख़ोजता है। वस्तुतः इन पगचिन्हों के माध्यम से खोजने का प्रयास है उस राम को और
उस राम की सृजना करने वाले कवि के मूल्यों को। कविता में महान भाव कोई विरला कवि
ही भर सकता है । आज कविता जब अस्त व्यस्त भावों की अनुगामिनी बन गयी है तब कवि
उस महाकवि निराला को अपने काव्य में
उतारने की चेष्टा करते हैं। कवि वीरेन
यहाँ उस आलोचक की मुद्रा में है जो कि सकारात्मकता को उकेरकर उसके सृजनात्मक पक्ष
को बढ़ाने का पक्षधर है। इसीलिए वह वीतरागी अयोध्या में से उत्सव के क्षणों को बीन
लाना चाहते हैं जिसके पार्श्व में से किसी घायल ह्त्-कार्य धनुर्धारी का विकल रूदन
सुनाई पड़ रहा हो। क्योंकि कवि राम के औऱ
राम को संबोधित करते हुए प्रत्येक व्यक्ति मात्र के उस सबल पक्ष से भी परिचित है
जो निराशा के बीच आशा के मोती चुनकर लाते हैं। यहाँ कविता का यह अंश प्रस्तुत करना
इस कविता को समझने की दृष्टि से बेहद ज़रूरी है-
लेकिन
वह एक औऱ
मन रहा राम का
जो
न थका।
जो
दैन्यहीन, जो विनयहीन
संशय-विरहित
,करूणा –पूरित,उर्वरा धरा सा
सृजनशील-संकल्पवान
***********
इसलिए है
महाकवि,
टोहता
फिरता हूँ मैं इस
अँधेरें
में
तेरे
पगचिह्न। (फैज़ाबाद-अयोध्या, पृ.-31,32)
सनद रहे यह
वही अँधेरा है जिसकी बात मुक्तिबोध करते हैं जिसकी बात निराला करते हैं और उसी
पीड़ा को यहाँ उतनी ही गहनता से वीरेन
अभिव्यक्त करते हैं। साहित्य वस्तुत़ः इतिहास, मिथक और धर्म का पुनर्पाठ भी है
शायद इसी बात को सिद्ध करने का प्रयास वीरेन डंगवाल ने यहाँ किया
है।
भोर का
तारा भाषा में एक आस का प्रतीक है, एक उजास का
प्रतीक है और असंख्य तारों के मिटने का प्रतीक है जिसके
प्रकाश में अनेक स्वप्न नीम नींद में गढ़े गए हैं। मध्यवर्ग इन्हीं सितारों की
गणित में उलझा रहता है। कभी वह दिन विशेष के अनुसार वस्त्र धारण करता है तो कभी
आकाश के ग्रह- नक्षत्रों के फेर में उलझा रहता है। कभी रोजगार की चाह में वह बृहस्पति के ठीक होने का इंतज़ार करता है तो कभी
प्रेम में पड़ने के लिए मंगल के फेर में।परन्तु
सत्य तो यह है कि ये सितारे मात्र प्रतीक भर है जो कभी जीवन की भोर को इंगित करते
हैं तो कभी सांझ की अलसायी बेला को । यही कहने मात्र को कवि कह डालता है अन्तर्मन
की सबसे खूबसूरत अभिव्यक्ति कि-
भोर जो
विश्व का सर्वाधिक दिव्य प्रकाश है
उसमें अगर
सिर्फ हाशियें पर है सितारों की जगह
तो यों ही
नहीं।
(सितारों
के बारे में, पृ.34,35)
यहाँ
दुनिया का उसूल है कि जो चमकता है वही जगह पाता है,नज़र आता है इसी क्रम में लेखक
कहता है छाँह तो रात्रि की होती है ,तारों की नहीं। यहाँ कवि तारों की तुलना उन शब्दों से करता है जो
अंधकार की सुन्दरतम व्याख्या हेतु प्रयोग में लिए जाते हैं।
वीरेन आम ज़िंदगी और रोज़मर्रा की बातों पर तो सहज़ता से कविताई करते ही हैं पर
बात जहाँ सामाजिक रूग्णताओं पर आती है वे बेआवाज़ मगर पुरजोर तरीके से अपने शब्दों के माध्यम से टूटते हैं। यहाँ बात
की जा रही है संकलन की एक महत्वपूर्ण कविता को जो स्त्री जीवन के इर्द-गिर्द उसकी
सुबह औऱ शाम को लेकर बुनी गयी है। स्त्री सरोकारों के प्रचलित मानदण्डों को खारिज़
कर देने वाली अभिव्यक्ति के साथ कवि यह रचना रचता है। जहाँ की महिलाएँ हों गयी
कहीं कविता इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि वह स्त्री को केन्द्र में रखकर बुनी
गयी है बल्कि इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि एक पुंसवादी मानसिकता के तमाम गढ़ों
पर प्रहार करते हुए कवि एक स्त्री के नज़रिए से स्त्री जीवन और उसके संघर्ष को
देखता है। भारतीय संस्कृति में स्त्री के
लिए घर की चौहद्दी में ही उसका संसार सिमटा होता है। रसोई से लेकर चौबारे तक उसकी
विद्वता और तहज़ीब झलकती है पर इन सब में वह खुद को भूल जाती है। हर बात में नीची
गर्दन कर हाँ कहने वाली स्त्रियाँ जब अपने मन की थाह लेने लगे तो उनके मानवीय
संदर्भ समझ आने लगते हैं। स्त्री जीवन की एक बानगी ये भी हो सकती है कि सुबह सुबह
अखबार के पन्नों सी घर भर में बँट जाती है स्त्रियाँ और यह बँटने का दर्द केवल वही
जान सकती है। इसलिए कवि लिखता है कि मुझे उसी घर जाना भला लगता है जहाँ की महिलाएँ
हों गई कहीं क्योंकि ठीक तभी उस घर की निर्विघ्न और बेमाप स्वतंत्रता को मापा जा
सकता है। पर उन स्त्रियों का जाना , जाने के स्थान सब तय हैं, वे अपने मायके या
रिश्तेदारों के अलावा कहीं नहीं जा सकती इसीलिए उस स्वतंत्र घर में एक निश्चिंतता
है कि वे लौटेंगी और फिर फिर खोजेंगी अपनी ही बेतरतीबी में ही तरतीब को-
“अपने नरक की बेतरतीबी में ही ढूँढेंगी वे,
अपनी अपरिहार्यता की तसल्ली
खीझ भरी प्रसन्नता के साथ।”
(जहाँ की
महिलाएँ हों गयी कहीं, पृ.37)
वस्तुतः
वीरेन यहीं खरी खरी कह देते हैं कि स्त्री को ना चाहते हुए भी वे तमाम समझौते करने
पड़ते हैं जिनमें वह कई कई बार
चक्करघिन्नी की तरह पिस जाती है। वे कुछ क्षणों के लिए इस तरतीब सी मगर असहज
ज़िंदगी से दूर तो जा सकती है मगर फिर फिर लौटती हैं वे वहीं
तमाम भावनात्मक असहमतियों के बावजूद जहाँ सबसे
अधिक टूटना होता है। यही वीरेन की खूबी है कि वे अर्थ के भटकाव में
ना पड़कर सीधे सीधे अपनी बात को सही अर्थों में प्रकट कर देते हैं। कवि हर
परिस्थिति के ब्यौरे औऱ उसके भयावह पक्ष को एक दृष्टा की तरह देखकर हमारे समक्ष
प्रस्तुत करते हैं। यह एक आश्वस्ति प्रदान करता है कि एक कवि आत्म प्रचार से दूर
हर समस्या को तफ्सील से हमारे समक्ष प्रस्तुत कर रहा है। दुश्चक्र में स्रष्टा में हमारा रूग्ण समाज है जो हर तरह से अपने को सभ्य औऱ
आभिजात्य कहलाने की होड़ में रत है। इस संकलन को पढ़ते हुए बार बार शमशेर याद आते
हैं। इस संकलन का बिखराव और वैविध्य ही इस संकलन की खूबी है। कई कई कविताओं में शित्प
की अद्भुत कारीगरी है , गजब की ध्वन्यात्मकता और लय का ख्याल रखा गया है तो कई
बिल्कुल सपाट हैं और कई सपाट होकर भी बहुत लयात्मक। यहाँ कहीं पैना व्यंग्य है तो
कहीं घनघोर वैचारिकता। यही वस्तुतः कवि कौशल है कि तमाम उठापठक, वक्रोक्ति के बाद
भी कविता का शिल्प पाठक को ग्राह्य होने के कारण प्रभावित करता है।
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विमलेश शर्मा |
कवि के साथ
साथ मनुष्य होने के संदर्भों में भी कवि अपनी कविताओं में स्वंय सिद्ध है । यहाँ विनम्र परन्तु गर्वीला प्रतिरोध है, काल से होड़ लेने
का प्रयास है और तमाम प्रतिरोधों के बावजूद एक गहरी नींद लेने का प्रयास है । यहाँ
साहस है उस परमसत्ता से प्रश्न करने का जो मनुष्य की निर्मिति के साथ साथ कविता की
भी निर्मिति करता है । वीरेन की कविताओं में निर्लिप्तताल का भाव है । सभी सरोकारों पर लिखते हुए औऱ तमाम विसंगतियों को जीते हुए भी वे कन्हाई के दिनों की याद को अपने ज़ेहन में बनाए रखते हैं। वे स्मृतियों के माध्यम से ना जाने
कितने कितने सजीव चित्र उकेरते हैं औऱ यहाँ उनका साथ निभाते हैं उनके शब्द। इन शब्दो के चयन पर ,कविता
की बारीकियों पर बहुत कुछ कहा जा सकता है पर लेख की अपनी सीमाएँ हैं। कुछ
महत्वपूर्ण और मन को बेसबब छूने वाली कविताओँ को मैनें इस आलेख में उभारने की
कोशिश है पर यह सत्य है कि दुश्चक्र
में सृष्टा उस सृष्टा पर तंज कसने, सत्ता को ललकारने और
तमाम लेखकीय चेतनाओं चाहे वे शमशेर हो, निराला हो या मंगलेश सभी को
एक साथ अनेक स्तरों पर पुनर्व्याख्यायित करने का
प्रयास भी करता है।
****
संपर्कः-म.न.32 शिवा कॉलोनी,
हरिभाऊ उपाध्याय विस्तार
नगर योजना, वृद्धाश्रम के सामने,
अजमेर-305001 राजस्थान । दूरभाष-9414777259
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
इसलिए है महाकवि,
ReplyDeleteटोहता फिरता हूँ मैं इस
अँधेरें में
तेरे पगचिह्न
बेहतरीन
Bahut he acha tabsira hai
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