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रश्मि भारद्वाज |
हाल के वर्षों में अपनी कविताओं के मार्फत हिन्दी जगत का
ध्यान आकृष्ठ करने में जिन कवियों ने महत्त सफलता अर्जित की है उनमें रश्मि
भारद्वाज प्रमुख नाम है। कहने की जरूरत नहीं कि उनका पहला कविता संग्रह ही
ज्ञानपीठ से प्रकाशन हेतु संस्तुत हुआ है।
आज रश्मि का जन्मदिन भी है। हम उन्हें बधाई दे रहे हैं और उनकी
कविताएँ प्रकाशित कर दुनिया की तमाम युवा कविता और कवियों के आगे सम्मान में नत
हैं।
एक अतिरिक्त अ - एक
वे
जो लय में नहीं,
उनके
सुर में नहीं मिला पाते अपनी आवाज़,
उनमें
भी दफ़न होता रहता है एक इतिहास
जिसे
पढ़ने वाला
बहिष्कृत
हो जाता है
देवताओँ
के बनाए इस लोक से,
देवता
जो खड़ी नाक और भव्य ललाट के होते हैं
देवता
जो विजेता हैं,
जीतने
के लिए भूल जाते हैं देवत्व के सारे नियम
अपने
यश गान में उन्हें नहीं चाहिए कोई गलत आलाप
एक
उपसर्ग मात्र से बदलती है भूमिकाएँ
साल
दर साल जिन्दा जलाया जाने की तय हो जाती है सज़ा
बस
एक अतिरिक्त अ की ख़ातिर
वे
जो सुर नहीं रहते हैं
इतिहास
में
एक अतिरिक्त अ - दो
हर
तरफ़ बिक रहे जीत के नुस्खों के बीच भी
पृथ्वी
पर बढ़ रहा आतंक पराजय का
शब्दकोष
के चमकते शब्दों की लत में पड़ी दुनिया
नहीं
संभाल पाती है एक अतिरिक्त अ का कहर
सायबर
कैफ़े में किसी चमत्कारी स्मिथ को मेल करता वह बेचैन बेरोजगार
टूटी-फूटी
अंग्रेजी में गिड़गिड़ाता
जानना
चाहता है जीवन में सफल रहने की तरकीबें
वहीँ
सड़क के दूसरे किनारे लगे लाल तम्बू में
रंगीन
शीशियों में भरे गए हैं विजय द्रव्य
स्खलित
होते आत्मविश्वास के फैलने और टिकने की गारन्टी के साथ
दुनिया
की तमाम पवित्र जगहों पर कतारबद्ध प्रार्थनाएं
अक्षमताओं
की त्रासद कथाएँ हैं
बेबस
पुकारों से प्रतिध्वनित है ब्रह्मांड
जबकि
वरदान सरीखे जीवन को सहेजने की हिदायतों से
अंटे
पड़े हैं दुनिया के महान ग्रन्थ
सृष्टि
हारती जा रही
एक
उपसर्ग मात्र से
18 बी
फोर
बाई फोर के क्यूबिकल में फंसे इंसान को कितना उड़ना चाहिए !
ज़्यादा
से ज़्यादा उसे देखना चाहिए
एक
अदद गाडी का सपना
वह
देख सकता है दो कमरों का आधुनिक फ़्लैट
और
सजे धजे बच्चे भी
फिर
उसे सोचना चाहिए इ. एम. आई. के बारे में
सीखना
चाहिए क्यूबिकल में सांस ले पाना
तयशुदा
ऑक्सीजन की मात्रा के साथ
मुझसे
पहले 18 बी में सव्यसाची बैठा करते थे
सुना
वो बहुत कामचोर थे
(
उनके सपनों में कविताएँ भी थी!)
मैं
सबकी नज़र बचा अपनी कविताएँ फ़ाइलों के नीचे दबाती हूँ
फोर
बाई फोर के इस क्यूबिकल में
सपने
बाज़ार -रंग के होते हैं
उन्हें
पूरा पाने के लिए ख़ुद को देना होता है पूरा
अगर
आप आकाश के ताज़ा रंग देखना चाहते हैं
पृथ्वी का हरापन संजोने की चाहत है
भागते
हुए भी अक्सर रुक कर
अब
भी देख लेते हैं पेड़ ,
फ़ूल , गिलहरी , चिड़िया
ट्रैफिक
पर गाड़ियों के बंद शीशों में नज़र गड़ाती आँखें
और
फुटपाथ पर ठंड से कांपते उस बूढे को
और
ले आते हैं सबको साथ अक्सर
अपने फोर बाई फोर के क्यूबिकल में
साबूत
( बिना इ. एम.आई. के )
तो धीरे - धीरे आप नाकारा होते जाते हैं
18 बी के लिए
ग्रेपवाइन
बातों
की पाँखों पर दुनिया का बसेरा
बातें
जो डैनें फैलातीं
तो
पल दो पल सुस्ताती मुंडेर पर
फिर
जा पसरती गिरजी चाची की खटिया पर
सूखती
मिरचाई के संग
तीखी, लाल, करारी हो उठती
बच्चू
बाबा के हुक्के में घुसती
धुएं
के नशे में मदमस्त हो जाती
वे
बाते कनिया चाची के चूल्हे पर
खदबद
खौलती
सिलबट्टे
पर धनिया,
गरम मसल्ले के साथ पिसती
चटकार
हो जातीं
बूढ़े
वामन सा सीमान्त पर खड़ा
प्रहरी
बरगद
मुस्काता
मन ही मन
जब
लाल मौली सी मीठी,
मनुहारी बातें गुपचुप
बन्ध
जाती उसके कठोर तन पर
नइकी
कनिया के पैर में कांटा चुभा
या
कि पीपल पेड़ वाला जिन्न घुसा था
पेड़
पर बैठा जिन्न आँखें तरेरता
हमरा
नाम बहुत बदनाम करती हो
अगली
बार आना चाची पीपल के गाछ तले
अबकि तुमको ही धरता हूँ।
तब
चाची के पेट में मरोड़ उठा था
बातें
थी कहनी कथाओं में ढलतीं
सामा
चकेवा की मूरत में सिरजतीं
वे
लोकगीतों के बोलों में घुलती
कंठ
कंठ दर्द ,विरह,प्रेम बरसता
खेतों
में जो गिरतीं सोना उगलतीं
तालों
और कुओं पर झमकती
घोघो
रानी!
अहा
कितना पानी
कमर
तक पानी,
गले भर बतकहियां
रात
को जो भूले से चनेसर मामी रस्सी पर पैर रख आती
सांप
सांप कहके टोला जगाती
कोकिला
बंगाल से आई करिया जादूगरनी है
मरद
मानुष को भेड़ा बनाती है
माधोपुर
वाली बुढ़िया डायन है
बच्चे
चबाती है
सेमर
के फूल सी
धतूरे
के बीज सी
फन
काढ़े नागिन सी
बिन
खाये ब्राह्मण सी
लेकिन
वे बातें थीं जिनसे जीवन टपकता था
किस्से
कहानी,
राग रंग, सावन
कई
बरस बीते जाने कहाँ गुम गईं बातें
खेत
खलिहान सूखे,
ताल-तलैया रोयी
अब
बातें अक्सर मिलती है
कुएँ
की तली में गँधाती,
पेड़
से लटकती,
बेआवाज़
पछाड़ें खातीं
सुना
किसी ने कहा कि
यह
भी बस एक अफ़वाह है
बातें
भी कहीं भूख से मरी हैं!
भारहीन
मैं
असीम आकाश को सौंपती हूँ मेरा निर्णय
नदी
से कहती हूँ मुझे बताओ कैसे बहना है,
सड़क
का पत्थर जो असंख्य ठोकरों के बाद भी सलामत है,
उसे
ज़िन्दगी मुझसे बेहतर जीनी आती है
मिट्टी
की ख़ुशबू भर से एक नन्ही बेल बोतल में कैद भी लहरा उठती है,
हवा
को अपना भविष्य सौंप बैठे पेड़ झूमना नहीं भूले।
वह
अनंत सागर लौटता है बार-बार
अपने
पास कुछ भी शेष नहीं रखने के बाद की प्रचूरता में उछाहें भरता हुआ,
आग
की लौ हर बार कुछ नया रचती है
संहार
में भी सृजन के कण दीप्त किए
अपने
फ़ैसलों का भार मुझ पर ज़्यादा है
अब
एक बार इन्हें तुम सबके हवाले कर
मैं
मुक्त होना चाहती हूँ।
एक मृत्यु नींद के बाद
जैसे
नींद में चल रहे बुरे सपने के बाद एक ज़ोर की चिहुंक और ज़ारी रहना नींद का,
जैसे
चलते- चलते अचानक पैरों से आ लगे पत्थर से छलछला आया लाल रक्त और ज़ारी रहे सफ़र,
जैसे
मिल जाना तुम्हारा यूँ ही ताउम्र के लिए और नहीं मिलना एक पल का भी,
जैसे
बेतहाशा हँसते हुए कभी ज़बरन छुपाए गए आँसू, और रोते हुए होंठों
पर फैली हुई मुस्कान,
वैसे
ही मृत्यु नींद के बाद का जीवन,
शेष, अनवरत, निरन्तर
लेकिन
कहीं थमा हुआ सा
इच्छा
और अनासक्ति
स्वप्न
और विरक्ति
प्रेम
और अप्रेम के बीच,
जीवन
के अंदर कई टुकड़े जीवन
लेकिन
फिर भी जुड़े हुए
इंडिया गेट पर एक टूटा
हुआ गमला
इंडिया
गेट पर
अमर
जवान ज्योति के घेरे में
कतार
में सजे गमलों में एक गमला टूटा पड़ा है
लोग
घेरे की जंजीर तक आते हैं
बच्चे
बूढ़े जवान
प्रेमी
युगल
विद्यार्थी
कोई गेट का शीर्ष
छूते फ़ोटो खिंचवा रहा
कोई
परिदृश्य में चमचमाती वर्दियों में खड़े जवान चाहता है
एक
मुंहफट लड़का,
जो कहीं दूर से आया है
ज़ोर
से अपने दोस्त से पूछता है
इसके
अंदर हम नहीं जा सकते क्या !
मोदी
जा सकता है !
अच्छा
मोदी जा सकता है,
हम नहीं जा सकते !
गमला
अब भी वहीं टूटा पड़ा है
एक
छोटी लड़की फूल के पौधे को गिरा देख परेशान हो जाती है
वह
थोडी देर बंदूक ताने जवानों को देखती है आसपास खड़ी भीड़ को टटोलती है
फिर
अपने नन्हे हाथों को जंजीर के अंदर डाल
चाहती
है कि टूटा हुआ गमला उठा दे
उसकी
बड़ी बहन उसे पीछे खींचती
आँखें
तरेरती है
बच्ची
सहमी आँखों से कभी गमले
कभी
प्रहरियों को देखती
पीछे
हट जाती है
गमला
वही गिरा रह जाता है
जंजीर
के बाहर
नीले कपड़ों और नीली आँखों वाली
नन्ही
अफगानी सारा गोल गोल भाग रही
जीवन
में शायद पहली बार इतना उन्मुक्त होकर भागी है
जंजीर
के बाहर
बांग्ला
देशी मुहम्मद है
प्रेयसी
के साथ चटपटे चने खा रहा
रूस
से आई श्वेतलाना है
जिसे
सब चोरी छिपे निहार रहे
और
हैं भारत के कई रंग बिरंगे टुकड़े
जंजीर
के अंदर
एक
टूटा हुआ गमला है
और
एक तख्ती टंगी है
स्मारक
की दीवार,
खम्बों और जंजीर को न छुएं ।
****
नाम : रश्मि भारद्वाज
जन्मस्थान- मुजफ्फरपुर,
बिहार
शिक्षा -अँग्रेजी साहित्य से एम.फिल
पत्रकारिता में डिप्लोमा
वर्तमान में पी.एच.डी शोध (अँग्रेजी साहित्य)
दैनिक जागरण, आज आदि प्रमुख
समाचार पत्रों में रिपोर्टर और सब - एडिटर के तौर पर कार्य का चार वर्षों का अनुभव
,वर्तमान में अध्यापन, स्वतंत्र लेखनऔर
अनुवाद कार्य । गलगोटिया यूनिवर्सिटी मेंअंग्रेज़ी असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर
कार्यरत
अनेकप्रतिष्ठित पत्र –पत्रिकाओं
में विविध विषयों पर आलेख, कविताएँ एवं कहानियाँ प्रकाशित।
मुजफ्फरपुर दूरदर्शन से जुड़ाव।
ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार -2016 द्वारा पाण्डुलिपि‘एक अतिरिक्त अ’ चयनित
बोधि प्रकाशन , जयपुर द्वारा
प्रकाशित और वरिष्ठ कवि विजेंद्र सिंह द्वारा संपादित 100 कवियों के संकलन “शतदल” में रचनाएँ चयनित।
राजपाल प्रकाशन द्वारा रस्किन बॉन्ड का कहानी संग्रह एवं साहित्य
अकादमी विजेता हंसदा सोवेन्द्र शेखर के कहानी संग्रह आदिवासी नहीं नाचेंगे का
अनुवाद ।
हिन्दी अकादमी, ज्ञानपीठ’ वाक’, युवा 2016 आदि साहित्यिक कार्यक्रमों में
चयनित भागीदारी।
पता: 129, 2nd फ्लोर, ज्ञानखंड-3,
इंदिरापुरम, गाजियाबाद, उत्तरप्रदेश-201014
ईमेल: mail.rashmi11@gmail.com
संपर्क- 09654830926
वेब
मैगज़ीनमेराकी पत्रिकाका संपादनजिसके
द्वारा समय- समय पर साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन।
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
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