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संदीप प्रसाद |
इशारे
मुखौटा
बदल कर वह दुश्मन
घुस
गया है हमारी पंचायत में,
बड़ी
मुश्किल से था खदेड़ा
हमने
जिसे खूँ-जाँ देकर।
शक
होता है कि वह गया भी था
क्या
कभी ?
या
लौट आया है दुबारा
ज़रा
सा आराम फरमा कर।
इस
बार छीन रहा है हमसे वह
हमारी
चाहतें हमारे सवाल,
मैं
कहूँ कुछ तो वह हँसता है
मेरे
इशारों को वाहियात बता कर।
इक
पुरानी सी जुबान की ताबूत में
दफ़्न
कर दिये किताबों को हमने,
अब
तो अपने बच्चों को दे रहे हैं
बाज़ार
से किस्से खरीद कर।
हमारे
रुपयों पे बैठ बड़े जिल्लत से
मुस्कुरा
रहा है मेरा बूढ़ा बाप,
और
हम तौल रहे हैं इसे
उनके
तराजू पे चढ़ा-चढ़ा कर।
अफ़सोस
कि नहीं आती मेरे हाकिम को
जुबाँ
अपने अहले वतन की,
जवाब
देता है वो हर बात का
अजनबी-सी
लफ़्ज में पर्चे पढ़ कर ।
ऐ आइनो उठो
ऐ
आइनो उठो!
अपनी
आँखे खोलो
देखो
मुझे!
तुम्हारा
शहंशाह आया है।
इससे
पहले कि दुनिया लाइलाज हो जाए
ओ
चपटी सूरत वालों
अपनी
आवाज के तार काँपने दो।
सादे
कातिलों के खौफ में
विचारधाराओं
ने छोड़ दी है अपनी केंचुल
धीरे-धीरे
और
बेजुबानों के लोथड़ों पर
लिखी
जा रही है आदमी होने की परिभाषा
ऐसे
में तुम
गूँगा
हो कर दिवाल से चिपके कैसे रह सकते हो?
उठो
कि
तुम्हारे सामने छिन रही है
घासों
से उनकी जमीन,
रंगधनुष आसमाँ से,
गरीबों
से उनकी गरीबी,
मासूमियत बच्चों से,
बूढ़ों
से उनके किस्से,
लोरियाँ माँओं से,
उठो
कि कहीं फिर
औरत बस माँदा बनकर न रह जाए।
देख
रहे हो तुम?
रिस
रहा है हलाहल
नीतियों
के मथते हुए इस दौर में
और
सब
सोए हैं अपने-अपने बहाने में
विष
के बाद अमृत की चाहत पाने में
हर
कोई भाग जाना चाहता है
चाँद
या मंगल पर
इसलिए
आइनों उठो!
अपने
बच्चों के हिस्सों का अमृत बचाओ
इस
बार तुम भी नीलकंठ हो जाओ।
उठो
कि
नफरत
की निगाहों से घूरते हुए
लायक
बन बैठे हैं नालायक सारे
कह
दो उनसे कि
मेरी
सूरत से इतनी नफरत न कर ऐ नादान
जरा
गौर से देख,
मैं तो बस इक आइना हूँ
मैं
तो बस इक आइना हूँ...
एक दिन
एक
दिन जब मैं टूट जाउँगा
दुनियाँ
मेरे टुकड़ों को
दीवालों
पर चुनवाएगी
मेरे
टूटे टुकड़े भी
लोगों
का घर बचाएँगे ।
मेरे
भीतर का
सर्द
पहाड़ जब पिघल जाएगा
जमींदोज
हो जाएगा
हर
कतरा-कतरा उसका
सोख
कर उसे बंजर धरती से
खिलेंगे
नन्हें फूल
मेरे
आँसू भी नया बागवाँ बसाएँगे ।
गिन
लूँगा जब
अपनी
आखिरी साँस को भी
तरी
इन साँसों की
घुलकर
बादलों में बरसेंगी लगातार
हवाएँ
सरसराती हुई आएँगी
बिखेर
जाएँगी कोई कहानी
हर-बार
।
उस
दिन रोएँगे
शब्द
फूटकर मेरे सीने पर
हजारों
अहसास काँधा देंगे
पहुँचाएँगे
अर्थों की अर्थी पर
मैं
जलकर भी
सबको
जिला जाउँगा बार-बार ।
कोई
पहचान नहीं पाएगा उस दिन
मेरी
आवाज औ मेरी सूरत
तब
नींद का चादर ओढ़
तुम्हारी
आँखों में जी जाउँगा कभी-कभार ।
उस वक्त
मैं
जार-जार रोया
पर
आँसू नहीं थे मेरे पास
शब्द
नहीं थे
आवेश
नदी में
तरी-सी
तैरने को
न
तस्वीर थी न बाँहें थी न कंधा था
बेचारा
दिल तो फटा था कई ओर से
पर
न सुई थी न धागा था न पैबंदा था
ऐसा
नहीं कि दुनिया अचानक
हो
गई एकदम से गरीब
सबकुछ
वैसा ही रहा
जैसा
था जैसा है
और
मेरे पास से गुजरे सभी
हर
रोज की तरह
पर
दर्द यही है कि
किसी
का दिलासा नहीं मिला
पर
उस वक्त
अकेली
रात ही आई थी मेरे पास
और
साथ-साथ जागी थी
बड़ी
देर तक।
खुदगर्ज़ दर्द
कभी
सोचता हूँ कि मेरा दर्द
है
बड़ा खुदगर्ज़ ।
अच्छा
होता
जो
वह नदी बन बहता होता
अनुभूतियाँ
रंग-बिरंगी उसमें तैरती रहतीं
जिसे
लोग निकाल
अपने
घरों को बना लेते
थोड़ा
और सुंदर,
थोड़ा और जीवंत ।
बाग
होता मेरा दर्द
तो
अच्छा होता कितना
आकार
पंखुड़ी बन जाती
और
पंख बन जाते रंग
थोड़ी
सुरभि और थोड़ा प्यार
छिड़क
जाती कुदरत
बस, और चाहिए भी क्या
जीवन
के लिए ?
अफ़सोस
कि मेरा दर्द
निकला
इतना खुदगर्ज़
न
वह बन सका रोटी
न
कर सका साकार कोई सपना,
बस, आम की डाल पर
खाली
झूले-सा
मुँह
बिचकाए
लटकता
रह गया ।
लड़ाई
हम
लड़े थे जोर-जोर
किस
बात पर
याद
नहीं अब
ऐ
दोस्त!
पर
क्या कहूँ कि
उसका
असर
कायम
है अब भी।
****
संदीप प्रसाद
असिस्टेंट प्रोफेसर,
सिटी कॉलेज,
कोलकाता-9
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
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