कविता जीवन-विवेक है - अच्युतानंद मिश्र
(1)
नई सदी में युवाओं की कविता को आप किस दृष्टि से देखते हैं ?
कविता
के लिहाज़ से नई सदी किसे कहेंगे? क्या वह ठीक 2000 से शुरू मानी जाये? अगर हम थोडा
गौर करें तो 2005 के आसपास से कविता में नये और पुराने के बीच एक लकीर खिंचने लगती
है. मुझे लगता है यही वह बिंदु है जहाँ से हम नई सदी में कविता के युवा स्वर को
रेखांकित कर सकते हैं .जब भी कोई नई पीढ़ी आती है तो वह किन्हीं राजनीतिक, सामाजिक
एवं सांस्कृतिक दबाव के साथ आती है .आप गौर करें तो इमरजेंसी के बाद हिंदी कविता
में ऐसी ही एक पीढ़ी आई. उसने कविता के मुहावरे को बदला .परन्तु पिछले तीस वर्षों
में कोई भी पीढ़ी इस काम को अंजाम देती नज़र नहीं आती. ऐसा इसलिए भी कि हर नई पीढ़ी
को उपरोक्त दबाव के साथ पुरानी पीढ़ी की काव्य चेतना के प्रति आलोचनात्मक विवेक
विकसित करना होता है. इस लिहाज़ से आप जिसे नई पीढ़ी या युवा स्वर कह रहे हैं ,उसने
अब तक ऐसा कुछ तो नहीं किया है. लेकिन अगर थोड़ा गहरे उतरे तो हम देख सकते हैं कि
दृश्य में थोड़ी हलचल और बेचैनी है. अगर यह बेचैनी आलोचनात्मक विवेक का निर्माण
करती है तो हिंदी कविता एक नये मुकाम पर पहुंचेगी और जिसके मूल में 2005 के बाद
परिदृश्य में आयेकवियों की भूमिका प्रमुख होगी.
(2)
आज की कविता को बाज़ार ने कितना प्रभावित किया है ?
आज
की कविता और बाज़ार के संदर्भ में जब हम बात करते हैं तो यह भी जरुरी हो जाता है कि
हम पहले यह जाने कि आज का बाज़ार पिछले समय के बाज़ार की अपेक्षा में एकदम भिन्न है.
बाज़ार बहुत सूक्ष्म हुआ है. उसकी घुसपैठ हमारे अवचेतन तक चली गयी है .वह हमारे
अंतर्बोध और हमारी जीवन दृष्टि में गहरे तक प्रवेश कर चुका है.बाज़ार के प्रतिरोध
को लेकर समूची बीसवीं सदी में गाँधी से दुर्लभ उदाहरण कोई नहीं है. गाँधी का समूचा
व्यवहार और दर्शन बाज़ार का विरोध करता है.लेकिन सवाल यह है कि आज के संदर्भ में
क्या वह कारगर है? जहाँ तक प्रश्न कविता पर बाज़ार के प्रभाव को लेकर है, तो यह अलग
से कहने की जरुरत नहीं कि बाज़ार ने उसे कितना प्रभावित किया. सवाल यह है कि कविता
में बाज़ार के बढ़ रहे प्रभाव को हम देखते किस तरह हैं? कविता का जब वस्तुकरण कर
दिया जाता है तो वह बाज़ार के लिए एक बिक्री की वस्तु बनने लगती है. फिर उसका अर्थ
और मूल्य दोनों ही बदल जाता है.वह एक पुनरुत्पादन की वस्तु बनकर रह जाती है. इस
पूरी प्रक्रिया में कविता और समाज के बीच का आदिम सम्बन्ध टूटने लगता है.
(3)
क्या आपको लगता है कि सोशल मीडिया ने आज की युवा कविता को एक नई दिशा और ज़मीन दी
है?
सोशल मीडिया को
अगर एक प्रकाशन का माध्य्यम माने तो वहां तक तो ठीक है, लेकिन हम जानते हैं कि उसकी
भूमिका उससे कहीं ज्यादा है. वह वास्तविक का न सिर्फ लोप करती है, बल्कि उसका छद्म
भी बनाती है. कविता के संदर्भ में उसकी भूमिका को मैं बहुत बेहतर नहीं मानता .
मुझे
नीत्से का एक कथन याद आता है.नीत्से ने कहा था, अगर हम धीरे धीरे कविता पढ़ते हैं
तो हम आधुनिकता की आलोचना प्रस्तुत करते हैं. सोशल मीडिया की गति ही दरअसल कविता
के विरोध में है. वह कविता के सारे अंतरालों को मिटा देती है. लगातार सोशल मीडिया
पर कविता की उपस्थिति उसे एक यांत्रिक उत्पादन में बदल देती है. वह कविता नहीं
कविता का एक छद्म होगा. हमे यह नहीं भूलना चाहिए कि सोशल मीडिया का मूल उद्देश्य
ही वास्तविकताओं को चिन्हों में बदलने का है.
(4)
नयी सदी में बड़ी संख्या में कवि अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं ,
इसके क्या कारण हैं ?
मुझे
नहीं लगता है कि कविता के संदर्भ में संख्या का कोई विशेष महत्व होता है. बीसवीं
सदी में कविता के दो महत्वपूर्ण बिंदु है आत्म-आलोचना और आत्म-संवाद. हर कवि को इन
बिन्दुओं से होकर गुजरना ही होता है .इसके बगैर कोई सच्ची कविता संभव नहीं.एक ऐसे
दौर में जब आत्म लगातार संकुचित होता जा रहा है , कविता के लिए कठिनाई बढती जा रही
है. संचार माध्यम यह भ्रम जरुर बनाते है कि आत्म का विस्तार हो रहा है. ऐसे में
सच्ची कविता की परख कठिन होती जाती है. आप जिस बड़ी संख्या की बात कह रहे हैं उसके
विपरीत मैं यह कहूँगा कि सच्ची कविता का दायरा समाज में लगातार संकुचित होता जा
रहा है. आज की कविता और कवियों के समक्ष यह बड़ी चुनौती है.
(5)
आज की कविता में लोक संवेदना का कितना
विस्तार हुआ है ?
देखिये जिसे हम लोक कहते हैं उसकी अवधारणा बदल गयी है
.रेमंड विल्लिंस ने एक पुस्तक लिखी थी, जिसमें 100 से अधिक शब्दों की बदल चुकी
अवधारणा पर विचार किया गया था. 19 वीं सदी का लोक-समाज और इक्कीसवीं सदी के लोक-समाज
में हमें फर्क करना होगा. कविता का कोई अस्तित्व समाज और मनुष्य से इतर नहीं हो
सकता. कविता को गाँव या शहर के कृत्रिम विभाजन में देखने से लोक संवेदना का व्यापार
कविता में दिखाना आसन हो जाता है, लेकिन पहले हमे यह समझना होगा कि किसान और किसान
जीवन को आज किस तरह तबाह किया जा रहा है. सिर्फ कविता में किसान , मौसम और
बारहमासा लिखने से लोक संवेदना की बात नहीं हो सकती. याद करिए नागार्जुन ने कई दशक
पहले ट्राम पर, कुली पर, रिक्शेवाले पर कवितायें लिखी थी. नागार्जुन से सौ वर्ष पहले
नज़ीर ने तिल के लड्डू पर और फेरीवाले पर कविता लिखी थी. ये सारीकवितायेँ लोक
संवेदना की ही कविता है.रघुवीर सहाय की कविता दयाशंकर को याद कीजिये .जिस वक्त लोक
और समाज को पूरी तरह नष्ट किया जा रहा हो ,उस वक्त तथाकथित लोक-संवेदना की रूमानी
कविताएँ लिखने से आप यथार्थ को नहीं समझ पायेंगे.हमें ‘घिन तो नहीं आती’ से
‘दयाशंकर’ तक लोकसंवेदना में आ रहे परिवर्तन को समझना होगा. रघुवीर सहाय की
कविताओं में जो करुणा है, वह लोक-संवेदना का ही अगला पड़ाव है. रामदास की हत्या लोक-संवेदना
की ही कविता है. क्रूरता और नृशंसता के निशाने पर निम्न वर्ग ही होता है.लोक
संवेदना को किसान और फसल तक महदूद करना उसका मुर्तिपुजन होगा. केदारनाथ अगरवाल की
कविता पैतृक सम्पत्ति को याद करें तो उसमें जो अगली पीढ़ी है, वह रघुवीर सहाय की
कविताओं में नज़र आता है. यह लोकसंवेदना का नया विस्तार है.
(6)
युवा कविता में विचारधारा की क्या जगह है ?
विचारधारा
की जरुरत तो हर कविता में होती है, उतनी ही जितनी खाने में नमक की.
(7)
कविता कोकिस हद तक प्रतिरोध के सांस्कृतिक औज़ार के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता
है और किस हद तक इसका लक्ष्य सौंदर्यबोध
है ?
क्या
हम सौन्दर्यबोध और प्रतिरोध को अलग-अलग मानेंगे ? मुझे लगता है दोनों एक दूसरे में
मौजूद होते हैं और कविता तो जीवन का उच्चतम बोध है. हर अच्छी कविता में यह होगा
ही. जैसे शारीर में ऑक्सीजन और रक्त का प्रवाह. एक के रुकने से दूसरा स्वतः ही
नष्ट हो जाएगा.
छद्म
आलोचना इस तरह का भ्रम फैलाती है कि यह कविता सौन्दर्यबोध की कविता है, यह
प्रतिरोध की कविता है. मैं इसे आलोचकीय सरलीकरण समझता हूँ, जिसका वास्तविक कविता
से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं.
(8)
नई सदी की कविता का ईमानदार ,
प्रामाणिक और समग्र मूल्यांकन अभी बाकी है,
इस संबंध में क्या संभव है ?
यह किसकी व्यर्थता है कवि की या आलोचक की ?
सबसे
कठिन और अविश्वसनीय आलोचना अपने समकाल की होती है. मेरा ख्याल है कि युवा कवियों
को अपनी पीढ़ी पर और अपने समकालीनों पर निर्णायक बात कहने से बचना चाहिए.यह इसलिए
कि युवा कविता हर दौर में एक गतिशील प्रक्रिया होती है.अधपके चावल से आप चावल का
ठीक स्वाद नहीं जान सकते. जो कविता प्रक्रिया में है, उसका प्रमाणिक मूल्याङ्कन
क्या होगा? इस बात की परवाह नहीं करनी चाहिए कि किसका मूल्याङ्कन हो रहा है और
किसका नहीं . वैसे भी यह साहित्य का काम नहीं . जब साहित्य में सांस्थानिक मूल्य
जगह बनाने लगते हैं तो मूल्याङ्कन की निर्णायकता थोपी जाती है.जरुरी यह है कि युवा
कवि अपने समय, अपनी भाषा और संवेदना को चीन्हें. निजी मूल्याङ्कन की बजाय कविता का
समय सापेक्ष मुल्यांकन को प्रश्रय दें. असहमति का विवेक साहित्य से बेहतर कहीं
विकसित नहीं किया जा सकता .जो युवा कवि अपने प्रति असहमतियों को लगातार सीखने की
कुंजी के रूप में ग्रहण करेगा वही भाषा में और कविता में आगे बढेगा.सवाल यह है कि
आप कविता किसके लिए लिखते हैं आलोचक के लिए या पाठक के लिए?
(9)
समाज में कविता की उपयोगिता कितनी बची है ?
जैसा
मैंने कहा कविता जीवन-विवेक है. उसकी उपयोगिता तो हरदम रहेगी ही . यह कभी नहीं
मानना चाहिए कि कविता को पढने वाले लोग कम नज़र आते हैं तो कविता का महत्व कम हो
रहा है .कविता समाज में और जीवन में दृश्य-अदृश्य कई रूपों में मौजूद रहती है.मेरी
माँ जब दुःख शब्द को उचारती है और वह भावुक होती है तो वह विद्यापति का कोई पद
सुना देती है. वह नहीं जानती कि विद्यापति हिंदी के आदि कवि हैं. अगर यह बात वह
जान भी जाए तो उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा. इसी तरह कबीर, तुलसी ,रविन्द्र, जीवनानन्द
आदि भी समाज में हर क्षण प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूपोंमें मौजूद रहते हैं.समाज की
स्मृति में कविता जीवन विवेक की लय की तरह पार्श्व में बजती रहती है. बंगाल में
बाउल गाने वालों को यह नहीं पता होता कि वह किसे गा रहे हैं.लेकिन वे गाते हैं .
गाते हुए आप उनकी सांस के उतार चढ़ाव को सुन सकते हैं .मनुष्यता की आदिम भाषा कविता
है. कविता सिर्फ उतनी नहीं जितनी वह शब्दों में नज़र आती है . कविता शब्दों से पहले
भी मौजूद रही होगी . कविता ने ही ध्वनियों को शब्दों में बदला होगा . ज्यादा
महत्वपूर्ण सवाल यह है कि मनुष्य और समाज के विघटन के इस बेहद क्रूर दौर में कविता
को किस तरह बचाया जाए, क्योंकि समाज और मनुष्य के बगैर तो कविता नहीं होगी.
साभार - वागर्थ
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
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