अर्पण कुमार की ये कविताएँ प्रेम की परिपक्वता के साथ ही जिम्मेदारी की भी बात करती हैं – यह वह प्रेम नहीं है जहाँ सबकुछ भूल जाया जाता है और हमारे सामने एक ऐसा संसार होता है जो मायावी और सम्मोहक लगता है बल्कि इस प्रेम में समझ और स्वीकार की धीमी आँच पर पर आहिस्ता-आहिस्ता सींझना होता है। कवि के प्रेम को धारण करने वाली स्कूल से लौटती लड़की अब एक स्त्री हो चुकी है और कवि के पास भी उसका लड़कपन नहीं बचा है। लेकिन प्रेम है और अपनी संपूर्णता में है और यहाँ कामना ही कामना को सम्हालती भी है। इस प्रेम में देह की भी अपनी महत्ता है लेकिन यह अंततः यह एक परिपक्व और जिम्मेदारी भरा प्रेम है जिसे स्मृतियों के महीन कणों से बुना गया है।
अनहद पर अर्पण कुमार की कविताएँ हम पहली बार पढ़ रहें।
आपकी राय का इंतजार तो रहेगा ही।
लड़की की बाँह में
स्कूल का बस्ता होता था
उस बस्ते पर सूरज की
मीठी-मद्धम रोशनी के फूल
किताब-कॉपी के कवर पर झड़ते
सोने-सी चमक रही होती
उसकी हथेली और बाँह
नहाकर
धूप की सुनहरी आभा में
कच्चे, धूल भरे रास्ते पर
मेरे तसव्वुर में
खोयी हुई लड़की
अलसाती चली जा रही होती,
साथ होती वह
अपनी सहेली और छोटी बहन के
मगर उन दोनों से कहीं अधिक
मैं होता
उसके साथ
अपने रूहानी अहसास से
वह पुलकी हुई होती
पोखर में तिरती
कुमुदिनी-की-सी,
दुलारती उसके पैरों को
रास्ते की धूल,
राह किनारे की झाड़ियाँ
स्वयं में यूँ डूबा देख उसे
भरपूर असीसतीं
उतार देतीं अपनी हरीतिमा
उसके शरीर के भीतर
और अक्सरहाँ
उसके बाएँ कान में
कुछ अंतरंग बातें करतीं,
ताड़ के लंबे पेड़
झुका-झुकाकर
अपनी गर्दन
नीचे की ओर
उसे निहारते और
ख़ुश होते
उसकी ख़ुशी में
उसकी बालों में बँधे
रिबन को पकड़कर
अठखेलियाँ करती
हवा
उसे खींच-खींच लेना चाहती
रह-रहकर
लड़की को गुदगुदा रही होती
अपनी सोच में डूबी लड़की
चाहती कि
उसके घर को जाता रास्ता
कभी ख़त्म न हो
उसके ख़यालों का सफ़र,
पश्चिम में डूबते सूरज की
तिरछी किरणें
उसे ख़ूब दुलारतीं,
अपने ही विचारलोक में
विचरण करती उस लड़की के
सही-सलामत
घर तक पहुँचने की प्रतीक्षा में
सूरज टालता रहता
अपना डूबना
मेरी आँखें
या उसकी आँखों में
प्यार की चाहत
कुछ अधिक थी,
कुछ अधिक था
मेरी बातों का आकर्षण
या उसके कान यूँ बेवज़ह
मेरी आवाज़
सुनना चाहते थे हरदम
जाने क्या था…
इतने बरस बीत गए
मगर उस लड़की को
लगता है कि
मेरी आँखें, आज भी
उसका पीछा कर रही हैं
और मुझे लगता है कि
मेरी आँखों में
है शेष
जितनी भी तरलता
उसके ही कारण है,
मेरे कंठ से
बाहर आती है
जो थोड़ी-बहुत मिठास
वह,
उसकी स्मृति की दुनिया से आती है
अब एक स्त्री है
और मेरे भीतर
कहाँ बचा
अब कोई लड़कपन!
इस अतृप्ति में कितनी तृप्ति है !
नदी का
संवाद-दर-संवाद से
प्रेम की परतदार बातों से
तुष्ट कहाँ होता है
सागर भी
सुनते हुए
नदी की विकल, विह्वल
और प्रवहमान आवाज़
दुनिया की
कितनी मनोहर
अधीरता है,
इस अतृप्ति में
कैसी तृप्ति है !
उसकी हँसी में मेरे कैशोर्य का स्वप्न हँसता है
बमुश्किल हँसती है
मगर जब और जितनी देर
हँसती है
उसकी मुस्कान के साथ
दिखती है मुझे
सुंदरतर, बेहतर
और जीने लायक
यह दुनिया
कोई तीन दशक पीछे
हरदम खिला रहता था
तब उसका चेहरा
लोग कहते थे-
वह
खी-खी करती रहती है हरदम
कि एक दिन
ख़ूब बड़े हो जाएँगे
उसके दाँत
किसी राक्षसी के-से
उससे स्नेह करनेवाले
उसे छेड़ते
इस बात पर
और चेताते भी
ऐसा बहुत कुछ
कि उसकी हँसी
क्रमशः धूमिल होती चली गई,
जो हरदम लहालोट
रहा करती थी
लहूलुहान होने लगी
उसकी आत्मा
बात-बेबात
जैसे ईख भूल जाए
रस भरना
अपने पोरों में,
जैसे कोई लतीफ़
भूल जाए
सुनाना लतीफ़ा
अपने पुराने स्कूल-दिन
वह मुझे प्रिय है
आज भी
पूर्ववत्
वही प्यारा और मंद-मंद
मुस्कुराता चेहरा
सहती हुई
अपमानजनक कर्कश आवाज़,
तानों की अनवरत ठक-ठक
वह बदल चुकी है आमूलचूल
जैसे बदल चुका हूँ मैं,
मगर अब भी
जब हँसती है वह
उसकी हँसी में
मेरे कैशोर्य का
स्वप्न हँस उठता है
जब-तब उससे
बातों में आ पैठते हैं
कई-कई क़िस्से
मेरे और उसके
किशोर मौसम के
वह रोने लगती है
हँसते-हँसते
हमारी बात ज़ारी रहती है
वह हँसने लगती है
रोते-रोते
मगर कहती है मुझसे
मेरी हँसी को
सचमुच क्या मेरे अपनों की नज़र लग गई!
अभी-अभी निकली
वह एक साँवली देह है
उस देह में प्रतिष्ठित
उजली आत्मा से जुड़े हैं
मेरी आत्मा के तार
उस सद्यःस्नाता देह को
दुलारता हूँ मैं
देर तक,
सटकर
एक-दूजे से
प्यार करते हैं
देर तलक
हम दोनों
साँवला कर जाती है
एकबारगी,
मैं करा जाता हूँ उसे
अतीतोन्मुख,
उसकी आँखों में
सहसा उतर आती है
कोई नदी
इतनी देर तक
लिपटी रहती है वह
मुझसे
कि इस बीच
बुरी तरह
सूखे रहे कई वर्षों को
वह जैसे
एकबारगी
गीला और हरा कर देना चाहती है
पसर जाते हैं
विरह भरे दिनों के क़िस्से,
कामना सँभालती है
कामना को।
कमनीय बूँदों से भीगती मेरी कल्पना
तब से है
उसकी नफ़ीस देह
जबसे मुझे पहली बार
प्रेम हुआ
किसी से
मैं साथ हूँ
अपने पहले प्यार के,
नहाई हुई
उसकी देह के साथ
अविश्वसनीय इस सच के
कमनीय बूँदों से भीगती
चली जा रही है।
बहेलिया, जाल और चिड़िया
फँसी चिड़िया
छटपटाती रहती है
उससे निकल बाहर आने को
उसे पसंद है
आकाश में विचरना,
वह चाहती है
अपनी चोंच से
सुराख़ कर देना
बादलों में,
वह
घूँटना चाहती है
बादल से टपकते बूँदों को,
बैठकर
पीपल की फुनगी पर
वह झूलना चाहती है
झूला मनभर,
हिलाती-डुलाती अपनी गर्दन
शहर भर के घरों में
वह झाँकना चाहती है,
वह करना चाहती है
बहुत कुछ
अपने जीवन में
मगर क़ैद कर रखा है उसे
अपने जाल में
किसी बहेलिए ने
जो उलझी हुई हैं
किसी-न-किसी जंजाल में
इंद्रजाल में
तो किसी मायाजाल में
जाने कैसे-कैसे
महाजाल में।
धीमी आँच
और मैं तुम्हें
मगर
किसी हड़बड़ी से
हो मुक्त
यह जानना और समझना
और मैं तुम्हें मान दूँ
मगर किसी प्रयोजन से
हो परे
यह लेन-देन
और मैं तुम्हारे
मगर अहं का अजगर
न सरक आए
मेरे तुम्हारे बीच
इसका ध्यान हो
किसी तुरंता खाने को
जैसे-तैसे निगलने में
सिवाय अपच और
धुआँयँध के
आओ,
तुम और मैं
कुछ देर तक सीझें
समझ और स्वीकार की
धीमी आँच पर।
झुमकों को हटाता हूँ
तुम्हारे गले से
सिकरी को मय ढोलना
अलग करता हूँ
चूमता हूँ
तुम्हारे बाएँ गाले पर
उभरे तिल को
तुम्हारे तन से
भारी साड़ी को
और रसपान करता हूँ
रसयुक्त कलश-युग्म का
हटाता हूँ
अनुरागपूर्वक
जिनमें अँटे होते हैं
बड़े सलीके से
तुम्हारे अंग-प्रत्यंग
जैसे अँटी होती है मिठास
किसी फल के छिलके के भीतर
जैसे अँटा होता है अँजोरा
भोर की अँजुली में
जैसे अँटा होता है
परिपक्व और स्वस्थ शिशु
अपनी माँ के गर्भाशय में
जैसे शिराओं के भीतर
अँटा होता है
गर्म और लाल रक्त
महकता है
तुम्हारा शरीर,
ख़ुशबू आती है
तुम्हारी निर्वसन काया से
अभी-अभी हटाए गए कपड़ों की
मैं प्यार करता हूँ तुम्हें
वस्त्रों के बग़ैर भी,
अकवचित देह से होकर
गुज़रती है
दूसरी अकवचित देह,
हो उठता है निरंकुश
प्रेम
उन्माद में
दोनों ही तरफ़ से,
पड़े रहते हैं
वस्त्र
किसी कोने
योद्धाओं के बख़्तर सरीखे।
प्रेम, आदर संग-संग
प्रेम
वहीं
हाँ, ठीक वहीं-वहीं
उसके लिए
लिखता हूँ आदर
प्रेम का महत्व
क्या, कैसे और कब तक हो!
जहाँ समाप्त होती है
उसकी लाज की सीमा,
अधीरता के
कच्चे रास्तों से होकर
शुरू होता है
वहीं से
ठीक वहीं-वहीं से
मेरे उत्तरदायित्व का
अरण्य भी तो!
जमाख़ोर
मगर, जमा नहीं करती
महँगी वस्तुओं,
कढ़ाईदार कपड़ों
और बेशक़ीमती आभूषणों को
हाँ, जमा
कर लेना चाहती है
प्यार भरे हर पल को
अपने आड़े दिनों के लिए
जब वह व्याकुल होगी
पाने के लिए
किसी की चाहत
निकाल कर थोड़ा-थोड़ा
उस भंडार से
चखेगी
आसक्ति के आस्वाद को
इस तरह
बचाती रहेगी स्वयं को
उन तड़पते दिनों में
वह एक जमाख़ोर है
गुरेज़ नहीं है उसे
प्रेम की
ऐसी किसी काला बाज़ारी से।
***
अर्पण कुमार
तीन काव्य संग्रह 'नदी के पार नदी' (2002), 'मैं सड़क हूँ' (2011), ‘पोले झुनझुने’ (2018), ‘सह-अस्तित्व’ (2020) एवं एक उपन्यास 'पच्चीस वर्ग गज़' (2017) प्रकाशित एवं चर्चित। आलोचना की एक पुस्तक 'आत्मकथा का आलोक' (2020) का संपादन। कविताएँ एवं कहानियाँ, आकाशवाणी के दिल्ली, जयपुर एवं बिलासपुर केंद्रों से प्रसारित। दूरदर्शन के 'जयपुर' एवं 'जगदलपुर' केंद्रों से कविताओं का प्रसारण एवं कुछ परिचर्चाओं में भागीदारी। कई कहानियाँ पुरस्कृत एवं कई आलोचनापरक आलेख महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।
संप्रति : अर्पण कुमार, फ्लैट संख्या 102, गणेश हेरिटेज, स्वर्ण जयंती नगर, आर.बी. हॉस्पीटल के समीप, पत्रकार-कॉलोनी, गौरव पथ, बिलासपुर, छत्तीसगढ़ ; पिन 495001
मो. 9413396755
ई-मेल : arpankumarr@gmail.com
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