सुबोध सरकार बांग्ला भाषा के विख्यात साहित्यकार हैं। इनके द्वारा रचित कविता-संग्रह द्वैपायन ह्रदेर धारे के लिये उन्हें सन् 2013 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
सुबोध सरकार, कृष्णा नगर, पश्चिम बंगाल में सन 1958 को पैदा हुए। बांग्ला के आधुनिक कवियों में शुमार इनका पहला कविता-संग्रह 70 के दशक में छपा और अब तक तकरीबन 26 से अधिक कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इसके अलावा अमरीका पर एक यात्रा-वृत्तांत तथा दो अनूदित किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं और वे बांग्ला कल्चरल मैगज़ीन, भाषानगर के सम्पादक भी हैं।
कुछ बेहतरीन और चर्चित कविताएँ कई विदेशी जुबानों में अनूदित हो चुकी हैं। यहाँ प्रस्तुत है सुबोध सरकार की कुछ बेहतरीन कविताएँ।
बांग्ला से हिंदी अनुवाद: देवेंद्र कुमार देवेश
यदि बच पाऊँ
यदि दूब बच पाए
हम भी बचेंगे।
यदि धान बच जाए
हम रहेंगे।
आम के पत्तों के जोड़े
पहनाओ मुझे
हरे नारियल की
यदि आँखें होतीं
यदि झरना बचा रहे
यदि पंछी बचे रहें
यदि आदिवासी बचें
हम बचेंगे।
चावल बचाएँ यदि
हम रहेंगे।
इतने प्रक्षेपास्त्र खरीदकर
क्या बचा पाए?
इतनी बड़ी पृथ्वी पर
हरेक मोहल्ले में
सोई पड़ी है आज
मलिन ज्योत्स्ना में।
इतना दंभ, इतना लोभ
इतना राजरोष
मनुष्य की अंतिम भिक्षा
देश-देश में अंतिम भिक्षा
एक टुकड़े कपड़े का
एक मास्क
यदि बचे प्रतिध्वनि
हम रहेंगे
सूप में धान की बाली
हम बचेंगे
यदि पास लौट आएँ
फिर से जुगनू
यदि बेटा घर लौटे
चावल लाकर रखूँ।
यदि घास बची रहेगी
बेटियाँ घास की तरह
मिट्टी और पानी पाकर
अंकुरित हो सकें।
हम पार कर जाएँगे
हम हरा देंगे
हम हटा देंगे
हम दिखा देंगे
यह महामारी
हम फिर से यदि
प्यार कर सकें।
बारहों महीने तेरहों षष्ठी
जुग जुग जिओ लाल
बचा रहे, बचा रहे
पहला वैशाख।
भाषा
जो चाहते हैं एक देश एक भाषा
वे क्या जानते हैं कि किसे कहते हैं देश?
मेरे भाई को तुमने मारा है कश्मीर में
मेरी बहन को मारा है कन्याकुमारी में
गंगा जल से क्या सब धुल सकता है?
तुम चाहते हो एक भाषा एक देश
बीस-बीस में बढ़ रही है शंका
मैं नहीं छोड़ूँगा अपनी मातृभाषा।
अपनी भाषा में क्या और गीत नहीं गाओगे?
जिस दिन तुम्हारी थाली जो जाएगी खाली।
देख पा रहा हूँ भरमाने वाला पाशा
मैं नहीं बोलूँगा अपनी मातृभाषा?
नया शाहरुख खान
इस बस्ती में, उस बस्ती में, हर बस्ती में
कहाँ है भगवान?
कोई-न-कोई खाने को तरसता रोगी शाहरुख खान।
मोहल्ले के मोड़ पर जमा होकर गाते हैं लोग गाने।
पैरों में किसी के फेंके हुए जूते
शरीर पर पॉलिथिन के थैलों से सिलकर बने कपड़े
कोई-न-कोई शाहरुख खान
गाता है गाना बस्ती-बस्ती
हमलोग कुछ-कुछ ठीक ही हैं, जो भी हैं जहाँ।
कोई खाएगा भरपेट, कोई रहेगा भूखा
किसी को मिलेगा, किसी को नहीं
अरे यार, रहो न मस्ती में।
माँ गई है, जली रोटी लाने
बाप गया है गाँजा पीने
यही तो है मेरा भारतवर्ष?
पैरों में किसी के फेंके हुए जूते
शरीर पर पॉलिथिन के थैलों से सिलकर बने कपड़े
बाजीगर ओ बाजीगर
शाहरुख खान गाता है गाना
जो गाना दिल को छू लेता।
माँ ने कहा था घर में रहो
लेकिन उसकी माँ का शरीर
लौटा देर रात को घर में
कपड़ों में लिपटा कबाब।
दूसरे दिन भी घर नहीं लौटा बाप।
माँ को खोकर शाहरुख खान आया शॉपिंग मॉल
शाहरुख खान डूबा नहीं पानी में
पुलिस ने आकर कहा, क्या रे!
यह क्या तेरा मोहल्ला, फूट यहाँ से।
जहाँ पर था चार सौ बीस, लौट आया वहाँ पर
पैरों से शाहरुख खान, गले से रहमान
नहीं रहा अब उसका भगवान।
हूबहू नाचता है राजू चार सौ बीस
भीतर चलता है डॉन का डायलॉग
एक रोटी, दो मुट्ठी भात पाकर
वह बन जाएगा ठीक महाभारत का लड़का
इस बस्ती में, उस बस्ती में, हर बस्ती में
होगा मेहमान
सारा देश मुँह बाए देखेगा
नया शाहरुख खान।
कवि
एक कवि
सारी रात जगकर
एक कविता लिखकर
कविता के नीचे
हस्ताक्षर नहीं करता
करता है तुम्हारे हृदय पर।
ख़ून
प्यार करते-करते
आदर करते-करते
आँखों से आँसू बहाते-बहाते
मैं जान गया हूँ
प्यार करना ही पर्याप्त नहीं
ख़ून करना होता है।
उतने दिन
जितने दिन मेरे हाथों पर
सुबह सात बजे
सूर्य का
प्रकाश आकार पड़ेगा
मैं उतने दिन तुम्हें प्यार करूंगा।
किन्तु उसके पहले आज मेरे होंठ
अपने होंठों में दबाए रखकर
बाकी बातें बंद कर दो
ताकि मैं
कुछ कहने का सुयोग न पा सकूँ।
पूर्णिमा
जिस शहर में तुम नहीं
वह शहर मेरा नहीं।
जिस घर में तुम नहीं
उस घर में दरवाजा नहीं, खिड़की नहीं
गोधूलि नहीं
मैं आग लगाकर निकल आया हूँ।
पीछे नहीं देखते
तब भी घूमकर पीछे देखता हूँ
एक घर आग की लपटों के बीच
धू-धू करके जलता है पूर्णिमा का चाँद।
केवल दो
अपने इन दो हाथों से
तुम्हें
प्यार करते-करते
जाने क्यूँ ऐसा लगा कि मेरी
छाती से
पेट से
कमर से
जांघों से
घुटनों से
पैरों से
क्यों और तीस हाथ
बाहर निकलकर
तुम्हें प्यार नहीं करते?
केवल दो हाथों से क्या
प्यार किया जा सकता है?
देवेन्द्र कुमार देवेश महत्वपूर्ण कवि अनुवादक और संपादक हैं।
जितने दिन मेरे हाथों पर
सुबह सात बजे
सूर्य का
प्रकाश आकार पड़ेगा
मैं उतने दिन तुम्हें प्यार करूंगा।
किन्तु उसके पहले आज मेरे होंठ
अपने होंठों में दबाए रखकर
बाकी बातें बंद कर दो
ताकि मैं
कुछ कहने का सुयोग न पा सकूँ।
पूर्णिमा
जिस शहर में तुम नहीं
वह शहर मेरा नहीं।
जिस घर में तुम नहीं
उस घर में दरवाजा नहीं, खिड़की नहीं
गोधूलि नहीं
मैं आग लगाकर निकल आया हूँ।
पीछे नहीं देखते
तब भी घूमकर पीछे देखता हूँ
एक घर आग की लपटों के बीच
धू-धू करके जलता है पूर्णिमा का चाँद।
केवल दो
अपने इन दो हाथों से
तुम्हें
प्यार करते-करते
जाने क्यूँ ऐसा लगा कि मेरी
छाती से
पेट से
कमर से
जांघों से
घुटनों से
पैरों से
क्यों और तीस हाथ
बाहर निकलकर
तुम्हें प्यार नहीं करते?
केवल दो हाथों से क्या
प्यार किया जा सकता है?
***
देवेन्द्र कुमार देवेश महत्वपूर्ण कवि अनुवादक और संपादक हैं।
संपर्क: devendradevesh@yahoo.co.in
हस्ताक्षर: Bimlesh/Anhad
सारी कविताएँ प्रभावकारी हैं।
ReplyDeleteअनुवाद भी उम्दा।