गोलगप्पे वाला
पूर्व गोपाल नगर
मंदिर बाजार, 24 परगना, पश्चिम बंगाल
घर के जवान लड़के, जो कोलकाता शहर की धूल-गर्द छानकर रात एक बजे लौटते ही हैं, वे भी सवेरे उठकर तैयारियों में उनका हाथ बंटाने लग जाते हैं और फिर दोपहर में साउथ लोकल ट्रेन से कोलकाता आते हैं। इनके लिए लोकल ट्रेन सचमुच जीवनदायिनी है। कोविड में ट्रेन की रफ्तार थमने से मानो इनके जिंदगी की रफ्तार थम सी गई हो। इनमें शायद ही किसी को हिंदी आती है। मछली-चावल सबसे ज्यादा पसंद है और इससे ज्यादा की इच्छा भी नहीं रखते, थोड़े में ही संतुष्ट हो जाने वाले हैं, बस एक बात खास है इनमें और वो है पढ़ने की इच्छा। कहते हैं, मिददा उपनाम का पहला शख़्स इस गाँव में आया था, जो छः पीढ़ियों में 150 परिवारों में बदल गया। ये सारा कुनबा छोटी- मोटी खेती के साथ-साथ गोलगप्पे, चाट छोला के व्यवसाय में लगा हुआ है।
बरसात में पानी से डूबे, गर्मी में पसीने से लथपथ, हर मौसम में ढ़हते-बनते घर, खस्ताहाल स्कूल, अधनंगे बच्चों का समय-कुसमय रिरियाना और हरेक चमकते रैपर के लिए तरसते बच्चे। इन्हें देखकर, प्रौढ़ शिक्षा, ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड, साक्षरता अभियान जैसी अधूरे मन से चलाई गई परियोजनाएँ बेमानी सी दिखने लगती हैं। बढ़ते बच्चों की आकांक्षाएं स्कूलों के फीस के सामने दम तोड़ देती हैं। हर दिन उनके सामने कोई न कोई सपना खंडहर में तब्दील हो जाता है। बहरहाल, इन तमाम कठिन परिस्थितियों में एक बच्चे ने अपने गाँव के स्कूल को बेहतर बनाने की ख़्वाहिश को पकड़ कर रखा है। कभी-कभी मैं सोचता हूँ यदि हर बच्चा शिक्षित हो गया और सब समझने लगा तो सामंती समाज का क्या होगा?
हमारे घर आना उसे बहुत अच्छा लगता है। जब भी वो परेशान होता बिना किसी लाग-लपेट के हमारे पास चला आता है। बस हमसे मिलना, बातें करना अच्छा लगता है। स्मिता भी उसे बिल्कुल परिवार के सदस्य की तरह समझती है और स्नेह करती है। पिछले साल मेरे जन्मदिन बीत जाने के लगभग दस दिन बाद वह विज्ञान के साथ-साथ दुनिया को मानवता का पाठ पढ़ाने वाले महान इंसान एपीजे अब्दुल कलाम की जीवनी भेंट स्वरूप ले आया। मेरे जन्मदिन पर मिले उपहारों में वो सबसे बेहतरीन और अनमोल उपहार है। एक गोलगप्पा बेचने वाले की सोच कितनी बड़ी हो सकती है, यह विस्मित करती है। जिसे मुझसे ज़्यादा पुस्तक की अहमियत पता है। उसे प्यार से डाँटते हुए मैंने कहा इतनी महँगी किताब क्यों लाया ! पैसे देने की कोशिश की पर उसने हमारी एक नहीं सुनी। उसकी स्वाभिमानी मुस्कान के आगे हम बस नतमस्तक हो गए।
उस दिन घर पर साथ खाते-खाते उसने हमें "दो बीघा ज़मीन" कहानी सुनायी। वही "दो बीघा ज़मीन" कहानी जिसे 40 के दशक में सलिल चौधरी ने लिखी थी, तब नाम था रिक्शावाला। बाद में इस कहानी पर फिल्म बनी तो, फिल्म का टाइटल रवींद्रनाथ टैगोर की कविता दुई बीघा जोमी से लिया गया। पूंजीवादी सोच वाले समाज को पृष्ठभूमि बनाकर लिखी गई कहानी के पाठ के बाद उसने बस इतना कहा, ‛कहानी के पात्र अब भी ज़िंदा हैं और संघर्ष जारी है।‘
सभी बातें वो इतने सरल हृदय से सुना रहा था कि हम बस उसे देखते रहे। सच पूछिए तो ऐसे लोग ही सही शिक्षा देते हैं। जीवन की शिक्षा, स्वाभिमान की शिक्षा, उद्देश्य की शिक्षा। वो मुझसे पूछता है माइकल मधुसूदन दत्त जी को जानते हैं? आपने पढ़ा है उन्हें? जवाब में मेरी गर्दन झुक जाती है और मैं इतना ही कह पाता हूँ - "नाम सुना है, पर पढ़ा नहीं।" कहता है मैं आपको उनकी किताब लाकर दूँगा। अचानक उठता है, आँखों से ग़ायब हो जाता है, एक धुआँ उड़ाते हुए जिसका ग़ुबार अब भी दृश्य में तैर रहा है।
अगली दोपहर हम पूर्व गोपालपुर के लिए निकल पड़े। रास्ते में सारे खेत पानी में डूबे दिख रहे थे। शहर में बैठ कर जब हम आराम से यहां उगाए अन्न- सब्जियों का इस्तेमाल करते हैं तब हम सब्ज़ियों और फसलों के डूबने और उगने की बात कहाँ सोचते हैं। कुछ दिन पहले ही तो वह अपने खेत की ढेर सारी सब्जियां लेकर घर आया था। डूबे खेतों को देख एक अनजाना डर घेरे जा रहा था कि इन खेतों में कहीं उसका खेत भी न हो।
हम लगभग दिन के ढाई बजे उसके घर पर पहुँचे! एक कमरे का
घर, जिसकी
छान वो भी कच्ची-पक्की और फर्श बहुत सफाई से गोबर से लिपी हुई। अकेले कमरे वाले घर
में भी संयुक्त परिवार ख़ुशी के साथ समाया हुआ था। एक चौकी पर पूरी दुनिया अँटी
पड़ी थी। उसकी भाभी,
चाची, दोस्त की बीवी और देवी रूपा माँ, सब ने
निश्छल प्रेम के साथ हमारा स्वागत किया और हम दोनों निशब्द बस दृश्य में घुले जा
रहे थे। भाषायी समस्या धीरे-धीरे अपना दायरा घटा रही थी और अब हम एक दूसरे की भाषा
समझने लगे थे। संवाद होठों से उठकर आँखों के माध्यम से हो रहा था। उनमें से सिर्फ़
एक को हिंदी आती थी। वह उसकी भतीजी थी, जिसकी आँखों में एक सार्थक
सकारात्मक हठ दिख रहा था और वो निर्भीक आँखों के साथ ज़ुबान से भी बहुत बोलती थी।
वहीं सामने लीपी हुई ज़मीन पर दो प्लास्टिक की कुर्सियों का इंतज़ाम टेबल के साथ किया गया था, जो उस कमरे में बिलकुल फ़िट नहीं बैठ रही थीं। मुझे कुर्सी पर बैठना थोड़ा अजीब भी लग रहा था इसलिए मैंने ज़मीन पर बैठने का अनुरोध किया, जिसको सविनय अस्वीकार कर दिया गया। हमने फिर ज़मीन पर चटाई बिछा कर एक साथ बैठने की बात की पर कोई तैयार ही नहीं हुआ, सबने बस हाथ जोड़ कर हमें नि:शब्द कर दिया। माँ बस हमें अपलक ताकती हुई आँखों से आशीर्वाद दे रही थीं। उन्हें हमारी बातें समझने में थोड़ा वक़्त लग रहा था। छोटी लड़की दुभाषिये का काम चपलता और चंचलता से कर रही थी। माँ की आँखें ममत्व, संतुष्टि और आत्मीय सुख से लबरेज़ थीं।
जिज्ञासा पूर्वक पूछा कि ये जो खेत डूब गए हैं, उसकी भरपाई सरकार कैसे करती है? मुझे जियोटैगिंग और उससे जुड़ी पॉलिसी के बारे में पता था पर सच्चाई का पता नहीं था। जमीनी सच्चाई जानकर दुख हुआ और गुस्सा भी। अभी तक फसल बीमा योजना के बावजूद कुछ भी पैसा नहीं मिला था, बिना किसी दुःख और पछतावे के दिया गया जवाब मुझे और बेचैन कर रहा था।
टपकती छत, कच्चा फ़र्श, कोरोना के कारण आई आर्थिक विपदा अलग से (गोलगप्पा महीनों तक नहीं बिका)। इतनी परेशानियों के बावजूद किसी का मुख म्लान नहीं, सब पर सच्चाई की तेज चमक तारी थी। ख़ुशी की कोपलें लिए सब एक समान मुस्कुरा रहे थे। मेरे लिए यह सब एक पहेली की तरह था। जहाँ हम हर छोटी बात पर झुँझला जाते हैं वहीं इनके चेहरों पर तमाम समस्याओं के बावजूद ग़ज़ब की संतुष्टि व्याप्त थी। उन्हें बस इस बात का दुःख था कि बेटा पढ़ नहीं सका पर इस बात गर्व भी था कि वह ईमानदार और मेहनतकश है और अभी भी पढ़ने की इच्छा रखता है।
मेरे जन्मदिन के लिए जो तैयारी उस घर ने की थी उसे देखकर मन उनके प्रति श्रद्धा से भर गया। उनके स्नेह से मैं भीतर तक भीग गया। अच्छे लोग कितने सच्चे और अच्छे हो सकते हैं हम शहर में बैठ कर इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते । ग़ुब्बारों से सजा घर, केक काटते समय फुलझड़ी का जलना, हम सब को तिकोना बर्थडे कैप पहनाना और फिर उसके ऊपर सुरीला गीत। यह सब किसी सपने से कम नहीं था। लोग कहते हैं प्रेम अदीठ होता है, दिखता नहीं सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है। मैं एक ट्रांस से गुज़र रहा था।
हमें बार-बार एहसास कराया जा रहा था कि गाँव में एक दूसरे का ख़्याल कैसे रखते हैं। शाम को एक जुट हो बैठते हैं, राजनीति से रणनीति सब पर चर्चा होती है। एक घर का बनाया विशेष खाना दूसरे घर अपने आप पहुँच जाता है। वो चंचल आँखों वाली लड़की तपाक से कहती है कि माँ का बनाया खाना नहीं अच्छा लगता तो चाची या भाभी किसी के यहाँ जाकर खा लेती हूँ। इन बातों को अगर कोई कहता तो मैं कहानी ही मानता, पर प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या !
गाँव भ्रमण कर वापस उसके घर लौटा तो कोलकाता लौटने का वक्त हो आया। कितनी
कहानियाँ एक साथ खड़ी थीं, जिनका ज़िक्र नहीं कर रहा हूँ। बस उस बच्ची से लगातार बातें
किये जा रहा था। वो दसवीं में पढ़ रही थी और आत्मविश्वास से लबरेज थी कि उसे बहुत
आगे तक पढ़ना है। मैंने उससे एक अबोला वादा लिया और शुभाशीष के साथ अपने होने की
मौन सांत्वना । अपने भविष्य के सपनों को लेकर वो बहुत सजग है।
हम दम्पत्ति बोलने की स्थित में नहीं थे। सबकी आँखों से स्नेह, प्रेम, आशीर्वाद उमड़ रहा था और हम उस घर से ऐसे विदा हो रहे थे जैसे स्मिता अपने मायके से लौट रही हो। हमारे साथ लौट रही थी उनके व्यक्तित्व की निश्छलता, अपार प्रेम, अविरल स्नेह, अदीठ आशीर्वाद, संतुष्टि की बारिश, विषम परिस्थितियों में खिली मुस्कानों की लड़ी, रिश्तों के सही मायने और सुनील गंगोपाध्याय की 100 डेज, जिसे आते समय उस बच्चे ने लाख मना करने पर भी जन्मदिन की भेंट स्वरुप दे ही दिया और मैं फिर निशब्द लौट आया।
काश! हमारे यहाँ एक बार फिर कृष्ण-सुदामा एक ही स्कूल में समान सुविधाओं के साथ शिक्षा प्राप्त करें, मानवीय मूल्यों को समान तौर पर जी पाएँ। योग्यता कई बार प्रमाण-पत्र की भेंट चढ़ जाती है। अमीर बच्चे कार में कोका-कोला पीते गरीब बच्चों को बाय-बाय कहकर सर्राटे से उड़ जाते हैं। सड़क से संसद तक के नेताओं के भाषणों में शिक्षा और उससे जुड़े सुधार की बात की जाती है, पर उन लंबी बयानबाजी का शिक्षा से कुछ लेना-देना ही नहीं है। शिक्षा जैसे-जैसे महंगी हो रही है, सपने संकुचित होते जा रहे हैं।
पर आँखें हैं तो सपने हैं और इसी बीच ख़बर पढ़ रहा हूँ कि कटिहार के लड़के ने आई ए एस टॉप किया.....।
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यतीश कुमार |
लेखक चर्चित कवि एवं समीक्षक होने के साथ नीलांबर कोलकाता के वर्तमान अध्यक्ष हैं। हाल ही में आई उनकी कविता पुस्तक अंतस की खुरचन खासी चर्चे में है।
क्या कहूँ मंत्रमुग्ध होकर यतीश जी के शब्दों के साथ उस गाँव परिवार में पहुँच गयी और सच में खोखले वादे, हर गाँव मे स्कूल शायद कागज़ों पर भी न मिले। काश की हर बच्चे का पढ़ने का सपना सच हो जाये पर शायद यही कुछ लोग नही चाहते।
ReplyDeleteउस परिवार से उस गाँव से मिलने की जिज्ञासा बढ़ा दी आपने यतीश जी।
सच कहा । कितना कुछ है करने को
Deleteबहुत सघन आत्मीयता और जमीनी भावुकता के साथ आपने रचा इसे।जीवंत और मार्मिक भी।जो मनुष्य और मनुष्यता को जीता है,रचाता,पचाता और बचाता है,उसी की कलम रससिक्त होकर बह पाती है।दरअसल जीवन तो समुद्र है,जितना डूबेंगे, गहराई उतनी मिलती जाएगी।सचमुच यतीश जी के एक और आयाम की खबर मिली।
ReplyDeleteShukriya
Deleteसच इतना निर्मल और सुखद भी हो सकता है, यतीश जी का यह संस्मरण पढ़कर एहसास हुआ । शहरी चकाचौंध और स्वार्थग्रस्त जीवन से दूर , अनेक विषमताओं के बावजूद भी पसरी शान्ति की सुंदर तस्वीर जो सच्ची भावनाओं से अलंकृत है, देखने को मिली । एक एक शब्द को पढ़ते हुए लग रहा था कि जैसे हम ही उसे जी रहे हैं....साक्षात् सामने से गुज़रते हुए देख रहे हैं और बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहे हैं कि काश! व्यवस्था में कुछ परिवर्तन लेकर आ पाते ! व्यवस्था न भी बदल पाये तो एक जीवन में शिक्षा / व्यवसाय की दौलत हम दे पायें तो हमारा जीवन सार्थक हो जायेगा ।
ReplyDeleteमानवीय भावनाओं के प्रति यतीश जी की संवेदनशीलता उन्हें न केवल एक आदर्श इंसान बनाती है बल्कि उनकी लेखनी को भी प्रभाविकता प्रदान करती है ।
'गोलगप्पे वाला' मर्मस्पर्शी संस्मरण है। जमीनी सच्चाई को रेखांकित करने के कारण इसकी गहराई बढ़ी है। धन्यवाद यतीश जी।
ReplyDeleteआत्मिक एवं संवेदनशील । दिल को छू गया ।
ReplyDeleteइस बीच पढ़े गए संस्मरणों में सबसे अनूठा लगा यतीश जी का यह संस्मरण।
ReplyDeleteप्राय: संस्मरण प्रसिद्ध लोगों पर लिखे जाते हैं, जहां संस्मरण लेखक प्राय: यह रौब जमाता है कि देखो अमुक महाशय के मैं कितना निकट था या हूं। यदि किसी सामान्य व्यक्ति या आर्थिक रूप से विपन्न व्यक्ति पर संस्मरण लिखे भी जाते हैं तो वहां भी अपना महिमा मंडन दिखावटी विनम्रता से कर लिया जाता है।
इस संस्मरण के भी दूसरे प्रकार के संस्मरण बन जाने की पूरी संभावना थी। किन्तु यतीश जी के सजग प्रयास ने इसे वैसा बनने से बचा लिया। कैसे -उद्धरण सहित इस पर बाद में लिखने की कोशिश करुंगा ।
फिलहाल तो इस संस्मरण की यह पंक्ति मानस में लगातार उमड़-घुमड़ रही है-
'शहर में हम अपनी माता के साथ भी ऐसा ही व्यवहार क्यों नहीं रख पाते?
संजीदगी और संवेदना से लबालब भरे इस संस्मरण को पढ़वाने के लिए बहुत-बहुत आभार ।
Aapka bahut bahut aabhar aapne doob kar padha
Deleteगोलगप्पे वाला संस्मरण पढ़ा।यतीश कुमार ने इन पुचके वालों के जीवन के कई पृष्ठ खोल दिये।रोचक और मॉर्मिक आलेख है यह
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ReplyDeleteयह एक विशिष्ट संस्मरण है।पठनीय तो है ही,इसकी संरचना भी शानदार है। बधाई।
ReplyDelete•विनोद मिश्र
बहुत ही निश्चल पावन मन से आपने इन यादों को संजोया है। ईश्वर इस प्यारे बच्चे की सारी मनोकामनाएं पूरी करें। बहुत आशीर्वाद इसको। मनभ सायाआ इसको पढ़ते-पढ़ते। बहुत-बहुत सुंदर यह।
ReplyDeleteभावों से भरी समबेदनाओं को संजोये तुम्हारी ये अभिब्यक्ति सत्यता के साथ बहुत अच्छी लिखे।
ReplyDeleteसर, नि: शब्द हूं! हृदय का कोना-कोना इस संस्मरण को पढ़कर जो महसूस कर रहा है उससे आंखें भीग चुकी हैं। यह भावपूर्ण होने के साथ-साथ अनोखा संदेश भी दे रहा है। ज़िंदगी में शिक्षा की अहमियत, छोटी-छोटी बातों से लेकर बहुत जरूरी बातों को सरलता पूर्वक रखा गया है। बच्चे और उसके परिवार से आपकी मुलाकात, वार्तालाप, जन्मदिन की यात्रा, किताबों का रंग, वाद्ययंत्र का संग और न जाने कितनी अनगिनत कहानियां, जितना बढ़ो उतना लगे कि थोड़ा और बचा है और थोड़ा और बचा रहे। इस बच्चे और उसके परिवार के लिए शुभकामनाएं 🙏 आशा है शिक्षा पाने की उनकी ललक को हमेशा हवा मिलती रहे और मां सरस्वती और मां लक्ष्मी की कृपा सदा उन पर बनी रहे। आपको और स्मिता मैम को बहुत-बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं सर 🙏 इस यात्रा को जीने के लिए और उसको लिखने के लिए धन्यवाद! प्रेरणादायक!
ReplyDeleteसच अगर नहीं लिखता तो मन कचोटता रहता
Deleteयह बहुत रोचक और मर्मस्पर्शी संस्मरण है। मैं कवि के मन की संवेदनाएँ उन्सकी लिखी कविताओं में नहीं, अपितु उसके जीवन और विचारों में ढूंढने की कोशिश करता हूँ। उसकी कविताओं को असल खाद-पानी उसे अपने इसी जीवन के अनुभव संसार से मिलता है। यह संस्मरण भी इसी बात की तस्दीक करता हैं। बहुत अच्छा और जीवंत प्रसंग है यह।
ReplyDeleteबहुत ही स्पर्शी लिखा है आपने। गीली आँखों को शब्द नहीं सूझ रहे प्रतिक्रिया के लिये...
ReplyDeleteराकेश बिहारी
Deleteकितना सुंदर, कितना सच्चा लेख। गाँव और वहां के लोग अब तक वैसे ही हैं। गाँव ही हैं जो जीवन में जीवन को बचाये हुए हैं। वरना भगती दौड़ती इस दुनिया मे बचा क्या है। बहुत हो भावपूर्ण लिखा आपने 🙏
ReplyDeleteअतभुद संस्मरण..भावनाओं के आवेग से सराबोर...
ReplyDeleteकभी-कभी मैं बचती हूँ,यतीश भाई के संस्मरण पढ़ने से।
ReplyDeleteदो वज़ह है इसके
पहली वज़ह है कि...आँखे बार-बार ख़ुशी से किसी भरी हुई गगरी की तरह छलक जाती है,इस गर्व के सात कि एक ऐसे इंसान को जानती हूँ ,जिसकी सवेंदना आज तक एक बच्चे की मुस्कान की तरह है।
दूसरी वज़ह है....अगले कुछ दिन उन शब्दों की डोर थामे वहीं रहती हूँ उन पलों में और सोचती हूँ..."क्या भगवान जी सिर्फ़ बड़ी-बड़ी आँखे दे दी,नज़र भी दी होती तो दुनिया को ऐसे भी देखती ना!"....
लिखते रहिये हमेशा आपके लिखे संस्मरण का इंतज़ार भी रहता है।
शुक्रिया अनहद कोलकाता इस पोस्ट के लिए।
ये संस्मरण जितना रोचक था उतना ही संवेदनशील….. इस दुनिया में कितनी असमानता है। जीवन एक गहरा कुआँ है ऊपर से देखने पर पानी की गहराई का अंदाज़ा नहीं लगा सकते। प्रेम से सराबोर इस संस्मरण के लिए बहुत शुक्रिया
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